Book Title: Puran aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 69
________________ 4 पुराण और जैन धर्म ५" जायंगे ऐसा विचार कर त्रिपुराधीश स्वयं ही वहां गया ||१३|| उन महात्मा को देख कर उनकी माया से मोहित होकर उनसे नमस्कार कर वह कहने लगा कि - हे निर्मालय ऋषि ! मुझे आप दीना दीजिये ? मैं आपका शिय हॅगा, यह बात निस्सन्देह सत्य है ॥ ५५॥ 'दैत्यराज के इस वचन को सुन कर वे सनातन ऋषि बोले ||२३|| हे दैत्यराज ! तुम यदि मेरी यात्रा को सर्वथा स्वीकार करोगे तो मैं दीक्षा दूंगा अन्यथा कोटि चल्न से भी नहीं ||१७|| यह सुन राजा तो मायामय हो गया, हाथ जोड़ कर शीघ्रता से उन यतिराज जी से बोला कि हे भगवन् ! आप जो श्राता देंगे उसका मैं कभी उल्लंघन नहीं करूंगा, यह बात सर्वथा सत्य है ।।५८-५९ ॥ सनत्कुमार जी बोले कि - त्रिपुराधीश के इन वचनों को सुन कर, मुख से वस्त्र की दूर हटा कर वे ऋषि कहने लगे ॥६०॥ है. दैत्येन्द्र ! सब धर्मों में उत्तम इम दोना को श्राप ग्रहण कीजिये, इस दीक्षा विधान से तुम कृत्य कृत्य हो जाओगे ||३१|| सनत्कुमार जी बोले कि - इस प्रकार कहकर उस मायावी ने अपने धर्म के अनुमार विधिपूर्वक उस राजा को दीक्षा दी ॥ ६॥ हे मुने ! आपने भाई के सहित दैत्यराज के दीनित हो जाने पर सभी त्रिपुर निवासी उस धर्म में दीक्षित हो गये, और उस ममय उस मायावी के शिष्यो प्रशिष्यों से वह सारा ही त्रिपुर भर गया ।।६६-६४|| व्यास जी बोले कि सनकुमार ! जिन नमव दैन्यराज को ढोता देकर उस मायावी ने मोहित कर लिया तब उसने क्या कहा और नैन्य राज ने क्या किया ? ||१|| मनकुमार जी बोले कि है पे ! नारदादि शिष्यों में परिलंबित प्रति मुनि उस देवराज

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