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पुराण और जैन धर्म
तो सभी शरीर धागे समान है, ऐसा सोच कर कभी भी को किसी की हिंसा नहीं करनी चाहिये ||१|| जीवों पर दया करने के समान पृथ्वी पर कोई धर्म नहीं है. इसलिये सर्व प्रयत्न से मनुष्य को जीवों पर दया करनी चाहिये ||१६|| एक जीव की रक्षा करने से मानो त्रिलोकी के जीवों की रक्षा होती है एवं एक के वध करने से त्रिलोकी के घात का दोष लगता है. धतः रक्षा करनी चाहिये मारे नहीं ||१७|| हिसा, परम धर्म है और आत्मा को पीड़ा देनी पाप है, पराधीन न होना मुक्ति और अभिलपित भोजन की प्राप्ति स्वर्ग है ||१८|| सत्यमारा से पुराने विद्वानों ने ऐसा कहा हैं, इसलिये नरक से डरने वालो को कभी हिंसा न करनी चाहिये ||१९|| चराचर संसार में हिंसा से बढ़कर पाप नहीं है. हिनक मनुष्य नरक और अहिसक स्वर्ग को जाता है ||२०|| दान तो बहुत है परन्तु उन तुच्छ फल देने वालों से क्या मतलब ! श्रभय दान के समान दूसरा दान कोई नहीं है ||२१|| ऋषियो ने अनेक शास्त्री ने विचार कर इस लोक परलोक में सुख देने वाले चार प्रकार के दान कहे हैं । (१) डरे हुए को अभयदान, (२) रोगीको प्रौषधि, (३) विद्यार्थी को विद्या और (४) भूने को अन्न दान ॥२२-२३|| ऋषि मुनियों ने जो जो दान कहे हैं वे अभय दान की सोलहवीं क्ला के बराबर भी नहीं है ||२४|| अचिन्त्य प्रभाव रखने वाले af मंत्र और औषधि का नाम और धन प्राप्ति के निमित्त प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करना चाहियं ॥२५॥ बहुत ना धन इकट्टा करके उसके द्वारा द्वादशायवनों की पूजा करनी चाहिये.
अन्य पूजन किमी
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