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पुराण
और जैन धर्म
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मेरी श्राज्ञा से जैसे तुम्हारे गुरु हैं वैसे ही तुम होगे और तुम धन्य हो निम्सन्देह तुम सद्गति को प्राप्त होगे ||२७|| बाद में वे चारों मुनि भी पापण्ड धर्म में स्थिति हुए, हाय मे पात्र लिये और मुख पर वस्त्र धारण किये, मलिन वस्त्र पहने हुए स्वल्प बोलने वाले, "धर्मलाभ " ही परम तत्व है प्रसन्नता पूर्वक ऐसे कहते हुए तथा वस्त्र के टुकड़ो से बनी हुई मार्जनी (रजोहरण) की धारण करते हुए जीव हिंसा के भय से धीरे २ पांव रखकर चलने वाले, वे सब भगवान् को नमस्कार कर उनके आगे बैठ गये ॥ ३१ ॥ तत्र हरि ने उनका हाथ पकड़कर उन्हें गुरु के सुपुर्द किया और प्रीतिपूर्वक उनके नाम को भी कहा ||३२|| जैसे तुम हो वैसे ही यह चारों भी मेरे हैं । तुम्हारा नाम यादि रूप हैं और पूज्य होने से तुम पूज्य भी कहलाओगे । तथा ऋपि, यति, कीर्य, उपाध्याय इत्यादितुम्हारे प्रसिद्ध नाम होंगे ||३४|| और मेरा शुभ नाम भी आपने प्रहण करना, अरिहन् इस पाप नाशक नाम का सदा ध्यान करना चाहिये ||३५|| तुमको भी लोगो के सुखदायक कार्य को करना चाहिये, लाक के अनुसार कार्य करने में उत्तम गति की प्राप्ति होगी ||३६|| सनमकुमार बोले कि, तब वह मायी, शिष्यो के सहित बड़े प्रेम से भगवान को प्रणाम करके शीघ्र ही त्रिपुर को गया ||३७|| विष्णु की प्रेरणा ने वह शीघ्र हो त्रिपुर में प्रवेश करके, मायावी होने के कारण उसने रूप से अपनी माया फैलाई ||३८|| हे मुने! शिवजी के प्रर्चन के प्रभाव मे सहसा त्रिपुर में वह माया न चल नकी, तब यति बहुत व्याकुल हुए ||४०|| तब उत्साह से रहित, चित्त में व्याकुलता और हृदय में दुख होने से उसने विष्णु का स्मरण किया ||४०| उसके म्मर