Book Title: Pratishtha Shantikkarma Paushtikkarma Evam Balividhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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गया है। किन्तु इसमें पूज्या साध्वी जी की जिनशासन के प्रति पूर्ण निष्ठा ही एक मात्र कारण है ।
मेरे लिए यह अतिसंतोष का विषय है कि विद्वतजन जिस कार्य को चाहकर भी अभी तक नहीं कर सके थे, उसे मेरे सान्निध्य एवं सहयोग से पूज्या साध्वी श्री मोक्षरत्नाश्रीजी ने दिन-रात अथक परिश्रम करके अल्प समय में पूर्ण किया हैं । यह मेरे साथ-साथ उनके लिए भी आत्मतोष का ही विषय है। इस हेतु उन्होंने अनेक ग्रंथों का विलोडन करके न केवल यह अनुवाद कार्य सम्पन्न किया है, अपितु अपना शोधमहानिबन्ध भी पूर्ण किया है । यद्यपि मैंने इस ग्रन्थ का नाम उनके शोधकार्य के हेतु ही सुझाया था, किन्तु मूलग्रन्थ के अनुवाद के बिना यह शोधकार्य भी शक्य नहीं था । इसका अनुवाद उपलब्ध हो इस हेतु पर्याप्त प्रयास करने पर भी जब हमें सफलता नहीं मिली तो शोधकार्य के पूर्व प्रथमतः ग्रन्थ के अनुवाद की योजना बनाई गई । उसी योजना का यह सुफल है कि आज आचारदिनकर के ये चारों खण्ड हिन्दी भाषा में अनुवादित होकर प्रकाशित हो रहे हैं । मेरे लिए यह भी अति संतोष का विषय है कि लगभग तीन वर्ष की इस अल्प अवधि में न केवल आचारदिनकर जैसे महाकाय ग्रन्थ का चार खण्डों में अनुवाद ही पूर्ण हुआ अपितु पूज्या साध्वीजी ने अपना शोधकार्य भी पूर्ण किया, जिस पर उन्हें जैन विश्वभारती संस्थान मान्य विश्वविद्यालय, लाडनू से पी-एच. डी. की उपाधि भी प्राप्त हुई । वस्तुतः यह उनके अनवरत श्रम और विद्यानुराग का ही सुफल है, इस हेतु वे बधाई की पात्र हैं। विद्वत् वर्ग से मेरी यही अपेक्षा है कि इन चार खण्डों का समुचित मूल्यांकन कर साध्वीजी का उत्साहवर्धन करे। साथ ही साध्वी श्री मोक्षरत्ना श्रीजी से भी यही अपेक्षा है कि वे इसी प्रकार जिनवाणी के अध्ययन, अनुशीलन एवं प्रकाशन में रूचि लेती रहे और जिन - भारती का भण्डार समृद्ध करती रहे । माघ पूर्णिमा
वि.सं. २०६३
०२ जनवरी २००७
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प्रो. सागरमल जैन संस्थापक निदेशक प्राच्य विद्यापीठ, दुपाड़ा रोड़ शाजापुर
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