Book Title: Pratishtha Shantikkarma Paushtikkarma Evam Balividhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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आचार्गदनकर (खण्ड-३) 225 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान शान्ति-कलश के समान ही व्यवस्थित रूप से स्थापित किए हुए पौष्टिक-कलश में डालें। उसमें सोने-चाँदी की दो मुद्राएँ एवं एक नारियल डालें। पूर्ववत् ही कलश की सम्यक् प्रकार से पूजा करें। फिर छत से लेकर कलश के तल को स्पर्शित करता हुआ सदश एवं दोषरहित वस्त्र बांधे, जो ऊपर से नीचे लटकता हुआ हो। पाँचों पीठों को क्रमशः चौंसठ, दस, दस, सोलह एवं छ: हाथ-परिमाण वस्त्र से ढकें। गुरु, स्नात्रकार तथा गृह-अध्यक्ष (प्रमुख) पूर्व की भाँति ही कंकण से युक्त कलश धारण करें। गुरु को स्वर्ण-कंकण, मुद्रिका तथा सदश एवं दोष-रहित श्वेत रेशमी वस्त्र दें। फिर दो स्नात्रकार पूर्व की भाँति अखण्डित धारा से शुद्ध जल कलश में डालें। उस समय गृहस्थ गुरु उस गिरती हुई जलधारा को पौष्टिक-दण्डक का पाठ करते हुए कुश द्वारा कलश में डाले। पौष्टिक-दण्डक इस प्रकार है -
"येनैतद्भवनं निजोदयप दे सर्वाः कला निर्मलं शिल्पं (शल्यं) पालनपाठनीतिसुपथे बुद्ध्या समारोपितम्। श्रेष्ठाद्यः पुरुषोत्तमस्त्रिभुवनाधीशो नराधीशतां किंचित्कारणमाकलय्य कलयन्नर्हन् शुभायादिमः ।।१।। इह हि तृतीयारावसाने षट्पूर्वलक्षवयसि श्रीयुगादिदेवे परमभट्टारके परमदैवते परमेश्वरे परमतेजोमये परमज्ञानमये परमाधिपत्ये समस्तलोकोपकाराय विपुलनीतिविनीतिख्यापनाय प्राज्यं राज्यं प्रवर्तयितुकामे सम्यग्दृष्टयश्चतुःषष्टिसुरासुरेन्द्राश्चलितासना निर्दम्भसंरम्भभाजोऽवधिज्ञानेन जिनराज्याभिषेकसमयं विज्ञाय प्रमोदमेदुरमानसाः निजनिजासनेभ्य उत्थाय ससम्भ्रमं सामानिकाङ्गरक्षकत्रायस्त्रिंशल्लोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोगिकलोकान्तिकयुजः साप्सरोगणाः सकटकाः स्वस्वविमानकल्पान् विहायैकत्र संघट्टिता इक्ष्वाकुभूमिमागच्छन्ति। तत्र जगत्पतिं प्रणम्य सर्वोपचारैः संपूज्याभियोगिकानादिश्य संख्यातिगैर्योजनमुखैर्मणिकलशैः सकलतीर्थजलान्यानयन्ति। ततः प्रथमार्हतं पुरुषप्रमाणे मणिमये सिंहासने कटिप्रमाणपादपीठपुरस्कृते दिव्याम्बरधरं सर्वभूषणभूषितागं भगवन्तं गीतनृत्यवाद्यमहोत्सवे सकले प्रवर्तमाने नृत्यत्यप्सरोगणे प्रादुर्भवति दिव्यपंचके सर्वसुरेन्द्रास्तीर्थोदकैरभिषिंचन्ति त्रिभुवनपतिं तिलकं पट्टबन्धं च कुर्वन्ति शिरस्युल्लासयन्ति श्वेतातपत्रं चालयन्ति चामराणि वादयन्ति वाद्यानि शिरसा वहन्त्याज्ञां प्रवर्तयन्ति च।
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