Book Title: Pratishtha Shantikkarma Paushtikkarma Evam Balividhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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डालने के भाग में पूर्व में नद्यावत पूर्ववत् करें। अधी, मधु, खीर
आचारदिनकर (खण्ड-३) 176 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान पूर्ववत् ही करें। इनके अतिरिक्त अन्य नीचकृत्य करने वाले विप्रादि के गृहों की प्रतिष्ठा-विधि अकृत्य होने के कारण यहाँ नहीं बताई गई है। इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में गृह-प्रतिष्ठा की विधि सम्पूर्ण होती है।
अब जलाशय की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं, वह इस प्रकार है____ जलाशय की प्रतिष्ठा पूर्वाषाढ़ा, शतभिषा, रोहिणी एवं धनिष्ठा नक्षत्रों का योग होने पर करें। सर्वप्रथम जलाशय की प्रतिष्ठा कराने वाले के घर में शान्तिक एवं पौष्टिक-कर्म करें। फिर सर्व उपकरण लेकर जलाशय पर जाएं। सर्वप्रथम चौबीस तन्तुओं से गर्भित सूत्र से पूर्ववत् जलाशय की रक्षा करें। वहाँ जिनबिम्ब को स्थापित करके बृहत्स्नात्र-विधि से स्नात्रपूजा करें। तत्पश्चात् जलाशय में पंचगव्य डालने के बाद अर्हत् परमात्मा के स्नात्रजल को डालें। फिर जलाशय के अग्रभाग में पूर्ववत् लघुनंद्यावर्त की स्थापना करें, किन्तु नंद्यावर्त्त-मण्डल के मध्य में नंद्यावर्त्त के स्थान पर वरुणदेव की स्थापना करें और उन सभी की पूजा पूर्ववत् करें। वरुण की विशेष रूप से तीन बार पूजा करें। फिर त्रिकोण अग्निकुंड में घी, मधु, खीर एवं नाना प्रकार के सूखे फलों द्वारा नंद्यावर्त्त-मण्डल में स्थापित देवताओं के नामस्मरणपूर्वक, नमस्कार (प्रणाम) पूर्वक प्रत्येक देवता सम्बन्धी मन्त्र के अन्त में स्वाहा बोलकर आहुति दें, किन्तु वरुण को पृथक् रूप से एक सौ आठ बार आहुति दें। फिर शेष आहुति एवं जल को जलाशय में डाल दें। उसके बाद गृहस्थ गुरु पंचामृत के कलशों को हाथ में लेकर उस जलाशय के मध्य में धारा डालते हुए निम्न मंत्र सात बार बोलें -
“ॐ वं वं वं वं वं वलय् वलिप् नमो वरुणाय समुद्रनिलयाय मत्स्यवाहनाय नीलाम्बराय अत्र जले जलाशये वा अवतर-अवतर सर्वदोषान् हर-हर स्थिरीभव-स्थिरीभव ॐ अमृतनाथाय नमः।'
फिर इसी मंत्र से पंचरत्नों को स्थापित कर वासक्षेप डालें। उसके बाद जलाशय के देहली, स्तम्भ, भित्ति, द्वार, छत एवं आंगन की प्रतिष्ठा गृहप्रतिष्ठा के समान करें। उसके समीप में प्रतिष्ठासूचक यूपस्तम्भ आदि की प्रतिष्ठा को “ॐ स्थिरायै नमः"- मंत्र से करें।
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