Book Title: Pratishtha Shantikkarma Paushtikkarma Evam Balividhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 203 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान हस्त-परिमाण का लाल वस्त्र रखें तथा वहाँ शिशु के निमित्त स्वर्ण निर्मित अंगुली एवं दो नारियल कलश के मध्य में रखें तथा उसे शुष्क एवं आई फलों से भर दें। एक नारियल शान्तिककर्म के समय कलश में डालें। फिर निम्न मंत्र से दर्भ द्वारा कलश के जल को इक्कीस बार अभिमंत्रित कर उसमें शतमूल-चूर्ण डालकर कलश के जल से बालक के सिर को अभिसिंचित करें।
“ॐ नमो भगवते अरिहउ सुविहिनाहस्स पुष्पदन्तस्स सिज्झउमें भगवई महाविज्जा पुप्फे सुपुप्फे पुष्पंदते पुष्पवइ ठटः स्वाहा।"
कुम्भ में नारियल रखें। तत्पश्चात् बालक के सभी अंगों पर मदनफल, ऋद्धि एवं अरिष्ट से युक्त कंकण बांधे। फिर बालक के हाथ में चाँदी की मुद्रा दें और कण्ठ में सोने की मूलपत्रिका पहनाएं। अधिवासना एवं आच्छादन की क्रिया जिनबिम्ब के सदृश ही करें। फिर वस्त्र से आच्छादित बालक को पिता के समीप रखे। तत्पश्चात् लग्नवेला के आने पर गृहस्थ गुरु बालक के कान में निम्न मंत्र तीन बार बोले - "जं मूलं सुविहिजम्मेण जायं विग्यविणासणं ।
तं जिणस्स पइट्ठाए बालस्स सुशिवंकरं ।।। तत्पश्चात् महामहोत्सवपूर्वक शिशु को आवासगृह में ले जाएं। मूलनक्षत्र में जन्मा हो, तो मूल-वृक्षांकित तथा आश्लेषानक्षत्र में जन्मा हो, तो सांकित सोने या चाँदी का पत्रक शिशु के गले में पहनाएं। .
- यह मूल एवं आश्लेषानक्षत्र का शान्तिविधान है। गृहस्थ गुरु को स्वर्णमुद्रिका प्रदान करें। बालक को वस्त्र पहनाएं। कन्या को तीन वस्त्र पहनाएं। कुछ लोग मूलनक्षत्र के चतुर्थपाद में बालक का जन्म होने पर अन्य प्रकार से स्नात्र करने के लिए कहते हैं। दिग्बन्धन से पूर्व बलि दें तथा रक्षा करें। शिशु एवं माता के अंगों पर विधिवत् मंत्राक्षरों का आरोपण करें। इस प्रकार मंत्रसहित किया गया प्रथम स्नान मूल नक्षत्र के प्रथम पाद के करोड़ों दोषों का हरण करता है तथा पिता के लिए कल्याणकारी होता है। युगंधर्या द्वारा किया गया स्नान द्वितीयपाद के सभी दोषों का हरण कर लेता है तथा माता के
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