Book Title: Pratishtha Shantikkarma Paushtikkarma Evam Balividhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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आचारदिनकर (खण्ड-३) 104 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
यहाँ सौधर्मेन्द्र की तीन पूजा होती है - (१) नंद्यावर्त्त के समीप में (२) इन्द्रवलय के मध्य में एवं (३) दिक्पाल वलय के मध्य में। ईशानेन्द्र की तीन पूजा होती है - (१) चन्द्र-सूर्य ग्रहों के मध्य में (२) इन्द्रवलय के मध्य में तथा (३) एक अन्य स्थान पर। पूजाक्रम से पुन-पुनः पूजा करने में कोई दोष नहीं है, जैसे - शान्तिनाथ एवं कुंथुनाथ भगवान को तीर्थंकरों के बीच एवं चक्रवर्तियों के बीच पूजन में स्थापित करते हैं और दोनों स्थानों पर भी पूजते हैं, अतः पूर्व में बताए गए अनुसार इसमें कोई दोष नहीं है। जैसा कि आगम में कहा गया है -
“स्वाध्याय, ध्यान, तप, औषधि, उपदेश, स्तुति, दान एवं संतों के गुण-कीर्तन में पुनरूक्ति का दोष नहीं लगता है।"
इस पूजा में प्रतिष्ठाकर्म करने वाले, अर्थात् विधिकारक, ब्राह्मण एवं ब्रह्मचारी स्वयं के हाथ से नंद्यावर्त्त वलयों में स्थित देवताओं की पूजा करते हैं। उसके समीप अष्टकोण अग्निकुंड में घी, खीर, गन्ने के टुकड़ों एवं विविध फलों के टुकड़ों से परमेष्ठी एवं रत्नत्रय (अरिहंत आदि पंचपरमेष्ठी एवं ज्ञान, दर्शन, चारित्र) को छोड़कर शेष विद्यादेवी लोकान्तिक देव, इन्द्र, इन्द्राणी, शासनयक्ष एवं यक्षिणी, दिक्पाल, ग्रह - प्रत्येक का नाम ग्रहण करके उनके पूजा के मंत्रों से स्वाहा बोलने पर आहुति दें। प्रतिष्ठा कराने वाले क्षुल्लक
और यतिजन तो सर्व सावद्यकारी प्रवृत्तियों के त्यागी होते हैं, अतः वे केवल मंत्र पढ़कर पूजा करते हैं, आहुति तो समीप बैठे हुए गृहस्थ के हाथों से ही करणीय है। वे स्वयं आहुति नहीं देते हैं। जैसा कि आगम में कहा गया है -
सुव्रती वज्रऋषि द्वारा यह करवाना अनुष्ठित होने से वाचक गच्छ में इस प्रकार का गणादेश है।
साधु एवं क्षुल्लकजन आहुति का वर्जन करते हुए मंत्र में 'स्वाहा' के स्थान पर नमः कहते हैं। नंद्यावर्तपूजा में स्थापित पदों, तीर्थंकरों की माता, देव-देवियों आदि की संख्या एवं सामूहिक पूजा की संख्या के अनुसार उतनी-उतनी संख्या में - १. जलचुल्लक (चुल्लू भर जल) २. चंदनादि तिलक ३. पुष्प ४. अक्षतमुष्टि (मुट्ठी भर
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