Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

Previous | Next

Page 15
________________ इस द्वितीय भाग में बीस प्रकरण हैं आगे इनमें प्रागत विषयों का परिचय दिया जाता है अर्थ कारणवाद - बौद्ध एवं नैयायिक ज्ञान को पदार्थ का कार्य मानते हैं इनका कहना है कि ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होकर ही उसको जानता है। यदि ऐसा नहीं माना जाय तो प्रतिकर्म व्यवस्था अर्थात् अमुकज्ञान अमुक पदार्थ को ही जानता है अन्य को नहीं ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकती। इस विषय पर प्रकाश डालते हुए जैनाचार्य ने कहा कि प्रतिकर्म व्यवस्था तो ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम के अनुसार हुना करती है अर्थात् जिस जिस वस्तु को जानने का प्रात्मा में क्षयोपशम हुअा है उसी उसी को वह क्षायोपशमिक ज्ञान जान लेता है अन्य को नहीं। पदार्थ को जानने के लिये प्रकाश की नियम से अावश्यकता रहती है ऐसा नैयायिक का मंतव्य है इसका निरसन तो सिंह, बिलाव, उल्लू आदि के प्रकाश के अभाव में ज्ञान होते हुए देखकर ही हो जाता है। यावरण सिद्धि-संवर निर्जरा सिद्धि -- आत्मा के ज्ञानादि शक्ति को रोकने वाला कोई पदार्थ अवश्य है किन्तु वह अविद्या या शरीरादिक न होकर सूक्ष्म जड़ स्वरूप पुद्गल नामा तत्त्व ही है । अद्वैतवादो अविद्या को आवरण मानते हैं, नैयायिकादि तो अदृष्ट नाम के आत्मा के गुण को ही प्रावरण मानते हैं। इनका क्रमशः निराकरण करते हुए कहा है कि अविद्या को अद्वैतवादी ने काल्पनिक स्वीकार किया है अतः वह वास्तविक ज्ञान का आवरण नहीं कर सकती, तथा अदृष्ट गुण भी प्रावण नहीं हो सकता, आत्मा का ही गुण और आत्मा को ही परतंत्र करे, श्रावृत करे ऐसा असंभव है। परबादी की यह आशंका है कि अमूर्त ज्ञान गुण वाले प्रात्मा को मूर्त पुद्गल कर्म कैसे प्रावृत कर सकता है। इसका समाधान तो मदिरा के दृष्टांत से हो जाता है, मदिरा मूत्तिक होकर भी प्रात्मा के ज्ञान को विस्मृत या मत्त करा देती है वैसा मूर्तिक कर्म ज्ञानादि को प्रावृत करता है। इस प्रकार प्रावरण की सिद्धि होने पर उस अावरण को किस प्रकार दूर किया जाय यह प्रश्न होता है, मीमांसक पूर्ण ज्ञानी सर्वज्ञ को नहीं मानते क्योंकि ज्ञान का प्रावरण सर्वथा नष्ट होना अशक्य है ऐसा उनका कहना है, किन्तु जिस प्रकार अनादिकाल से चला आया जलादि का शीतस्पर्श अग्नि संयोग होने पर नष्ट होता है अथवा अनादिकालीन बीज अंकुर की परंपरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 698