Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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12 : प्राकृत व्याकरण
रूप' 'इदानीम् के स्थान पर प्राकृत में 'एण्हि आदेश की प्राप्ति होकर 'एण्हि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अहो'! संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप भी 'अहो' ही होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१७ की वृत्ति से 'अहो' रूप की यथा-स्थिति संस्कृत वत् ही होकर 'अहो' अव्यय सिद्ध हो जाता है।
'आश्चर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अच्छरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२१ से 'श्च' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व ' ' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-६७ से 'य' के स्थान पर 'रिअ' आदेश और १-२३ से हलन्त अन्त्य 'म्' को अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'अच्छरिसिद्ध हो जाता है।
'अर्थालोचन-तरला' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'अत्थालोअण-तरला' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से रेफ रूप हलन्त 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'थ्' को द्वित्व'थ्थ' की प्राप्ति'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' के स्थान पर 'त्' की प्राप्ति; १-५ से प्राप्त 'अत्थ के अन्त्य 'अ' की आगे रहे हुए 'आलोचन-आलोअण' के आदि 'आ' के साथ संधि होकर 'अस्था' रूप की प्राप्ति; १-१७७ से 'च' का लोप; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-३१ से स्त्रीलिंग-अर्थ में मूल प्राकृत विशेषण रूप 'तरल' में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति
और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर 'अत्थालोअण-तरला रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'इतर-कषीनाम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इअर-कईणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्'
और 'व' का लोप; ३-१२ से मूल रूप 'कवि' में स्थित अन्त्य हस्व 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति; ३-६ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय आम्' के स्थानीय रूप 'नाम' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति
और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'इअर-कईणं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'भ्रमन्ति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भमन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से '' का लोप; ४-२३९ से हलन्त धातु 'भम्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; और ३-१४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भमन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'बुद्धयः' संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बुद्धीओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२७ से मूल रूप 'बुद्धि' में स्थित अन्त्व हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति एवं ३-२७ से ही संस्कृतीय प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्'='अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'बुद्धीओ' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'अर्थाः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप (यहां पर) 'अत्थ' है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त पूर्व 'थ' के स्थान पर 'त' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त रूप 'अत्थ' के अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' का प्राकृत में लोप; और १-४ प्राकृत में प्राप्त बहुवचन रूप 'अत्था' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होकर 'अत्थ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एव' संस्कृत निश्चयवाचक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'च्चेअ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८४ से 'एव' के स्थान पर 'चेअ' आदेश और २-९९ से प्राप्त 'चेअ' में स्थित 'च' का द्वित्व'च्च' की प्राप्ति होकर 'च्चेअरूप सिद्ध हो जाता है। ___'निरारम्भम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'निरारम्भ ही होता है। इसमें एकरूपता
से साधनिका का आवश्यकता न होकर अथवा ३-५ से 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राक़त में भी द्वितीया-विभक्ति के एकवचन में 'निरारम्भ तक ही सिद्ध करते हैं क्योंकि इसका यन्ति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का
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