Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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212 : प्राकृत व्याकरण
प्राप्ति कभी-कभी हो जाती है। जैसे:- 'त्व' के उदाहरण :- भुक्त्वा भोच्चा।। ज्ञात्वा=णच्चा। श्रुत्वा-सोच्चा।। 'थ्व' का उदाहरणः पृथ्वी-पिच्छी।। 'द्व' का उदाहरणः विद्वान् विज्जो।। 'ध्व' का उदाहरणः- बुद्ध्वा बुज्झा। इत्यादि।। गाथा का हिन्दी अर्थ इस प्रकार है:- दूसरों को नहीं प्राप्त हुई है-ऐसी-(ऋद्धिवाले) हे शांतिनाथ! (आपने) सम्पूर्ण पृथ्वी का (राज्य) भोग करके; (सम्यक्) ज्ञान प्राप्त करके (एवं) तपस्या करने के लिये (राज्य को) छोड़ करके अंत में परम कल्याण रूप (मोक्ष-स्थान) को प्राप्त किया है। (अर्थात् आप सिद्ध स्थान को पधार गये हैं)।।
__ 'भुक्त्वा ' कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भोच्चा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११६ से 'उ' के स्थान पर 'ओ की प्राप्ति; २-७७ से प्राप्त 'क्' का लोप; २-१५ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्व' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति और २-८९ से प्राप्त 'च' को दित्व 'च्च' की प्राप्ति होकर 'भोच्चा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'ज्ञात्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णच्चा' होता है। इसमें सूत्र संख्या-१-८४ से आदि 'आ' को हृस्व 'अ' की प्राप्ति; २-४२ से प्राप्त 'ज्ञ'को 'ण' की प्राप्ति; २-१५ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्व' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति और २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति होकर 'णच्चा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्रुत्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सोच्चा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स'; १-११६ से 'उ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; २-१५ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्व' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति और २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति होकर 'सोच्चा' रूप सिद्ध हो जाता है।
पिच्छी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है।
"विद्वान्' संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विज्जो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' को ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-१५ से 'द्व' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति, २-८९ प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'बुद्धवा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बुज्झा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द' का लोप; २-१५ से 'ध्व' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ' को 'झ्झ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' का 'ज्' होकर 'बुज्झा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भोच्चा' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
'सकलम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सयलं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सयलं रूप सिद्ध हो जाता है।
'पृथ्वीम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पिच्छि' होता है। पिच्छि रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है। विशेष इस रूप में सूत्र संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्'
का अनुस्वार होकर 'पिच्छिं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'विद्याम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-३६ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२४ से 'ध' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत के समान ही 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'विज्ज रूप सिद्ध हो जाता है।
'बुज्झा' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। 'अनन्यक-गामि' संस्कृत तद्धित संबोधन रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अणण्णय-ग्गामि' होता है। इसमें सूत्र संख्या
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