Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 341 की 'इ' होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'ण्' में प्राप्त प्रत्यय 'इर' की 'इ' की संधि; ३ - २२ प्राप्त पुल्लिंग रूप को स्त्रीलिंग वाचक रूप बनाने के लिये 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'ङी' में 'ङ' इत्संज्ञक हाने से 'इर' के अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'इर्' में उपरोक्त स्त्रीलिंग वाचक दीर्घ स्वर 'ई' की संधि और ३- १९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर दीर्घ ईकारान्त रूप ही यथावत् स्थिर रहकर 'भणिरी' रूप सिद्ध हो जाता है।
सा सर्वनाम की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ३३ में की गई है।
'स्विद्यति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिज्जइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'व्' का लोप; २-७८ से 'य्' का लोप; ४ - २२४ से 'द्' के स्थान पर द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; और ३- १३९ से वर्तमान काल एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिज्जइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
तु सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-८ में की गई है।
'काय' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कज्जे' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व 'अ' की प्राप्ति; २ - २४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'ड' इत्संज्ञक होने से पूर्व में स्थित 'ज्ज' अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर लोप और १-५ से प्राप्त हलन्त् 'ज्ज्' में आगे स्थित प्रत्यय 'ए' की संधि होकर 'कज्जे' रूप सिद्ध हो जाता है । ।। २- १८० ।।
हन्द च गृहाणार्थे ।। २-१८१।।
हन्द हन्दि च गृहणार्थे प्रयोक्तव्यम् ।। हन्द पलोएस इमं । हन्दि । गृहाणेत्यर्थः ।।
अर्थः-‘लेओ' इस अर्थ को व्यक्त करने के लिये प्राकृत-साहित्य में 'हन्द' और 'हन्दि' का प्रयोग किया जाता है। जैसे:- हन्द (= गृहाण) प्रलोकय इदम् = हन्द ! पलोएस इमं अर्थात् लेओ-इसको देखो । हन्दि गृहाण अर्थात् लेओ । 'हन्द' प्राकृत रूढ़ अर्थक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
‘प्रलोकय' संस्कृत आज्ञार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पलोएस' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से ‘र्' का लोप; १-१७७ से 'क्' का लोप; ३-१५८ से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३- १७३ से द्वितीय पुरुष के एकवचन में आज्ञार्थ में अथवा विध्यर्थ में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पलोएसु' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इदम्' संस्कृत द्वितीयान्त सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप 'इम' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७२ से इदम् के स्थान पर 'इम' आदेश; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'इम' रूप सिद्ध हो जाता है।
'हन्दि' प्राकृत में रूढ़-अर्थक अव्यय होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं है । ।। २ - १८१ ।। मिव पिव विव व्व व विअ इवार्थे वा ॥। २-१८२।।
एते इवार्थे अव्यय संज्ञकाः प्राकृते वा प्रयुज्यन्ते ।। कुमुअं मिव । चन्दणं पिव। हंसो विव । साअरो व्व । खीरोओ सस्स व निम्मोओ। कमलं विअ । पक्षे । नीलुप्पल - माला इव ।।
अर्थः- ‘के समान' अथवा ' की तरह' अर्थ में संस्कृत भाषा में 'इव' अव्यय प्रयुक्त किया जाता है। प्राकृत भाषा में भी 'इव' अव्यय इसी अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है; किन्तु वैकल्पिक रूप से 'इव' अव्यय के स्थान पर प्राकृत में छः अव्यय और प्रयुक्त किये जाते है; जो कि इस प्रकार है:- १ मिव, २ पिव, ३ विव, ४ व्व, ५ व और ६ विअ । इन छहो में
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