Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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358 : प्राकृत व्याकरण
'इम' सर्वनाम की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८१ में की गई है। "एअं सर्वनाम की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
कः संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'को' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७१ से मूल रूप 'किम्' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'को' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एसो' की सिद्धि सूत्र संख्या २-११६ में की गई है।
'सहस्रशिराः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सहस्ससिरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति; १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सहस्स-सिरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१९८।।
ऊ गरेक्षेप-विस्मय-सूचने ॥ २-१९९॥ ऊ इति गर्हादिषु प्रयोक्तव्यम्॥ गर्दा। ऊ णिल्लज्ज।। प्रक्रान्तस्य वाक्यस्य विपर्या साशंकाया विनिवर्तन लक्षण आक्षेपः।। ऊ किं मए भणिआ। विस्मये। ऊ कह मुणिआ अहयं सूचने। ऊ केण न विण्णाय।। ___ अर्थः- 'ऊ' प्राकृत साहित्य का अव्यय है; जो कि 'गर्हा' अर्थ में याने निन्दा अर्थ में; आक्षेप अर्थ में अथवा तिरस्कार अर्थ में; विस्मय याने आश्चर्य अर्थ में और सूचना याने विदित होने अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। गर्दा अथवा निंदा का' उदाहरण-अरे (धिक्) निर्लज्ज! =ऊ! णिल्लज्ज अर्थात अरे निर्लज्ज! तुझे धिक्कार है। 'आक्षेप' का यहां विशेष अर्थ किया गया है, जो कि इस प्रकार है:-वार्तालाप के समय में कहे गये वाक्य का कहीं विपरीत अर्थ नहीं समझ लिया जाय, तदनुसार उत्पन्न हो जाने वाली विपरीत आशंका को दूर करना ही 'आक्षेप' है। इस अर्थक आक्षेप का उदाहरण इस प्रकार है:-ऊ, किं मया भणितं ऊ किं मए भणिअं अर्थात् क्या मैंने तुमको कहा था ? (तात्पर्य यह है कि-'तुम्हारी धारणा ऐसी है कि मैंने तुम्हें कहा था', किन्तु तुम्हारी ऐसी धारणा ठीक नहीं है, मैंने तुमको ऐसा कब कहा था)।
"विस्मय-आश्चर्य' अर्थक उदाहरण इस प्रकार है:- ऊ, कथं (ज्ञाता)-मुनितां अहं-ऊ, कह मुणिआ अहयं अर्थात आश्चर्य है कि मैं किस प्रकार अथवा किस कारण से जान ली गई हूं, पहिचान ली गई हूँ। 'सूचना अथवा विदित होना' अर्थक दृष्टान्त इस प्रकार है:- ऊ, केन न विज्ञातम्-ऊ, केण न विण्णायं अर्थात अरे! किसने नहीं जाना है ? याने इस बात को तो सभी कोई जानता है। यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है। इस प्रकार 'ऊ' अव्यय के प्रयोगार्थ को जानना चाहिए। 'ऊ' प्राकृत साहित्य का निन्दादि' रूढ अर्थक और रूढ-रूपक अव्यय है, अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
(हे) निर्लज्ज! संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णिल्लज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'र' के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप (डो=) 'ओ' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर 'णिल्लज्ज' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कि' की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है।
'मया' संस्कृत तृतीयान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मए' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१०९ से संस्कृत सर्वनाम 'अस्मद्' के साथ में तृतीया विभक्ति के प्रत्यय 'टा' का योग प्राप्त होने पर प्राप्त रूप 'मया' के स्थान पर प्राकृत में 'मए' आदेश की प्राप्ति होकर 'मए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मणिों रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९३ में की गई है।
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