Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 406
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 373 'व्व' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। 'पश्य' संस्कृत क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप पुलअ भी होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१८१ से संस्कृत मूल धातु 'दश' के स्थानीय रूप ‘पश्य' के स्थान पर 'पुलअ आदेश की प्राप्ति; और ३-१७५ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय का लोप होकर पुलअ रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२११।। इहरा इतरथा ॥ २-२१२।। इहरा इति इतरथार्थे प्रयोक्तव्यं वा।। इहरा नीसामनेहि। पक्षे। इअरहा।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'इतरथा' के अर्थ में प्राकृत-साहित्य में वैकल्पिक रूप से 'इहरा' अव्यय का प्रयोग होता है। जैसे:- इतरथा निः सामान्यैः इहरा नीसामन्नेहिं अर्थात् अन्यथा असाधारणों द्वारा-(वाक्य अपूर्ण है)। वैकल्पिक पक्ष होने से जहाँ 'इहरा' रूप का प्रयोग नहीं होगा वहाँ पर 'इअरहा' प्रयुक्त होगा। इस प्रकार 'इतरथा' के स्थान पर 'इहरा' और 'इअरहा' में से कोई भी एक रूप प्रयुक्त किया जा सकता है। 'इतरथा' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'इहरा' और 'इअरहा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-२१२ से 'इतरथा' के स्थान पर 'इहरा' रूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'इहरा' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(इतरथा-) इअरहा में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप और १-१८७ से 'थ्' के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप इहरहा भी सिद्ध हो जाता है। ___'निः सामान्यैः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नीसामन्नेहिं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से विसर्ग रूप 'स्' का लोप; १-४३ से विसर्ग रूप 'स्' का लोप होने से 'नि' व्यञ्जन में स्थित हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; १-८४ से 'मा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति; ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थानीय रूप 'एस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में प्रत्यय 'हिं' के पूर्वस्थ 'न' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर निसामन्नेहिं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२१२।। एक्कसरिअं झगिति संप्रति ।। २-२१३।। एक्कसरिअंझगित्यर्थे संप्रत्यर्थे च प्रयोक्तव्यम्।। एक्कसरि झगिति सांप्रतं वा॥ अर्थः- 'शीघ्रता' अर्थ में और 'संप्रति आजकल' अर्थ में याने प्रसंगानुसार दोनों अर्थ में प्राकृत-साहित्य में केवल एक ही अव्यय 'एक्कसरिअं प्रयुक्त किया जाता है। इस प्रकार 'एक्कसरिअं अव्यय का अर्थ 'शीघ्रता-तुरन्त' अथवा 'झटिति' ऐसा भी किया जाता है और 'आजकल-संप्रति ऐसा भी अर्थ होता है। तदनुसार विषय-प्रसंग देखकर दोनों अर्थों में से कोई भी एक अर्थ 'एक्कसरिअं अव्यय का किया जा सकता है। __ 'झटिति' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एक्कसरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१३ से 'झटिति' के स्थान पर प्राकृत में 'एक्कसरिअं रूप की आदेश-प्राप्ति होकर 'एक्कसरिअं रूप सिद्ध हो जाता है। 'संप्रति' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एक्कसरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१३ से 'संप्रति' के स्थान पर प्राकृत में 'एक्कसरिअं रूप की आदेश-प्राप्ति होकर 'एक्कसरिअं रूप सिद्ध हो जाता है।।२-२१३।। मोरउल्ला मुधा ।। २-२१४॥ मोरउल्ला इति मुधार्थे प्रयोक्तव्यम्।। मोरउल्ला। मुधेत्यर्थः।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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