Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 387
________________ 354 : प्राकृत व्याकरण २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग अथवा नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' आदेश; और ३-१२ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'र' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर रूप 'आ' की प्राप्ति होकर 'सरिसक्खराण' रूप सिद्ध हो जाता है। 'वि' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। 'प्रणमत' संस्कृत आज्ञार्थक सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पणवह होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; ४-२२६ से 'म' के स्थान पर 'व' आदेश और ३-१७६ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'त' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पणवह' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मानाय' संस्कृत चतुर्थ्यन्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'माणस्स' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्तिः ३-१३१ से संस्कतीय चतर्थी के स्थान पर प्राकत में षष्ठी-विभक्ति की प्राप्ति: ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में (अथवा नपुंसकलिंग में)-संस्कृत 'ङस्' के स्थानीय रूप 'आय' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'माणस्स रूप सिद्ध हो जाता है। 'हला' प्राकृत भाषा का संबोधनात्मक अव्यय होने से रूढ अर्थक और रूढ-रूपक है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। __ 'हले' प्राकृत भाषा का संबोधनात्मक अव्यय होने से रूढ अर्थक और रूढ-रूपक है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। . हताशस्य संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप हयासस्स होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हयासस्स रूप सिद्ध हो जाता है। (हे) सखि! संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप (हे) सहि! होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-४२ से संबोधन के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर (हे) सहि! रूप सिद्ध हो जाता है। ईदृशी संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एरिसि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१०५ से प्रथम 'ई' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; २-७७ से 'द्' का लोप १-१४२ से 'ऋ' के स्थान पर 'रि' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति और १-८४ से दीर्घ स्वर द्वितीय 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर एरिसि' रूप सिद्ध हो जाता है। 'च्चिअ' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-८ में की गई है। 'गतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'गई रूप सिद्ध हो जाता है। दे संमखीकरणे च ।। २-१९६॥ संमुखीकरणे सख्या-आमन्त्रणे च दे इति प्रयोक्तव्यम्।। दे पसिअ ताव सुन्दरि।। दे आ पसिअ निअत्तसु।। अर्थः- 'सम्मुख करने के अर्थ में और 'सखी' को आमंत्रित करने के अर्थ में प्राकृत-भाषा में 'दे' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। 'मेरी ओर देखो' अथवा 'हे सखि!' इन तात्पर्य-पूर्ण शब्दों के अर्थ में दे' अव्यय का प्रयोग किया जाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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