Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
338 : प्राकृत व्याकरण
२-७९ से 'त्र्' में स्थित 'र्' का लोप; १-१७७ से प्रथम 'द्' का लोप; १ - २६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख्' के स्थान पर द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति और ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'तिअस - बंदिमोक्ख' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१७६ ।। आम अभ्युपगमे ।। २-१७७।।
आमेत्यभ्युपगमे प्रयोगक्तव्यम् । आम बहला वणोली ।।
अर्थः- 'स्वीकार करने' अर्थ में अर्थात् 'हाँ' ऐसे स्वीकृति-सूचक अर्थ में प्राकृत साहित्य में 'आम' अव्यय का उच्चारण किया जाता है। जैसे:- आम बहला बनालिः- आम बहला वणोली। हाँ, (यह) सघन वन - पंक्ति है । 'आम' अव्यय रूप है। रूढ रूप वाला होने से एवं रूढ़ अर्थक होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं रह जाती है।
'बहला' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भी बहला ही होता है। अतएव साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
'वनालिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वणोली' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-८३ से 'पंक्ति वाचक' अर्थ में रहे हुए 'आलि' शब्द के 'आ' को 'ओ' की प्राप्ति; १ - १० से प्राप्त 'ण' में स्थित 'अ' का, आगे 'ओली' का 'ओ' होने से लोप; १-५ से हलन्त् 'ण्' के साथ 'ओली' के 'ओ' की संधि, और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'वणोली' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१७७।।
वि वैपरीत्ये ।। २-१७८।।
णवीति वैपरीत्ये प्रयोक्तव्यम् ॥ णवि हा वणे ॥
अर्थः- प्राकृत शब्द 'णवि' अव्यय है और इसका प्रयोग 'विपरीतता' अर्थ को प्रकट करने में किया जाता है। जैसे:उण्हेह सीअला णवि कयलि वणे-उष्णा अत्र (तथापि ) - (णवि) - शीतला कदली- वने अर्थात् उष्णता की ऋतु होने पर भी (उल्टी) कदली वन में शीतलता है। इसी प्रकार से मूल उदाहरण का तात्पर्य इस प्रकार है:- णवि हा वगेणवि हा ! वने अर्थात् खेद है कि (जहाँ पहुँचना चाहिये था वहां नहीं पहुंच कर ) उल्टे वन में (पहुँच गया है) । यों 'विपरीतता' अर्थ में 'वि' का प्रयोग समझना चाहिये।
'णवि' प्राकृतः - साहित्य का (विपरीतता रूप) अर्थ वाचक अव्यय है। तदनुसार 'साधनिका' की आवश्यकता नहीं है। 'हा' प्राकृत - साहित्य का 'खेद' द्योतक अव्यय रूप है।
'वने' संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वणे' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण्' की प्राप्ति; ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'डि' के स्थान पर प्राकृत में 'ड़े' प्रत्यय की प्राप्ति 'ड' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से प्राप्त 'ण' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा और १-५ से प्राप्त हलन्त् 'ण्' में प्राप्त 'ए' प्रत्यय की संधि होकर 'वणे' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २- १७८ ।।
पुणरुत्तं कृत करणे ।। २ - १७९ ।।
पुणरुत्त मिति कृत करणे प्रयोक्तव्यम् ।। अइ सुप्पर पंसुलि णीसहेहिं अंगेहिं पुणरुत्तं ।
अर्थः- ‘किये हुए को ही करना' अर्थात् बार बार अथवा बारंबार अर्थ में 'पुणरूत्तं' अव्यय का प्राकृत साहित्य में प्रयोग किया जाता है। जैसे:- अइ ! सुप्पइ पंसुलि णीसहेहिं अंगेहिं पुणरूत्तं- अयिपांशुले! (त्वम्) स्वपिति निःसहै: अंगे: वारंवारं अर्थात् हे कुल्टे! (तू) बार-बार सहन कर सके ऐसे अंगों से (ही) सोती है। यहाँ पर 'सोने शयन करने' की क्रिया बार बार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org