Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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310 : प्राकृत व्याकरण ___ 'अस्मदीयम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अम्हेच्चयं होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१०६ से 'अस्मद्' के स्थान पर 'अम्ह' आदेश; २-१४९ से संस्कृत 'इय' प्रत्यय के स्थान पर 'एच्चय' आदेश; १-१० से प्राप्त 'अम्ह' में स्थित 'ह' के 'अ' का आगे 'एच्चय' का 'ए' होने से लोप; १-५ से प्राप्त 'अम्ह' और 'एच्चय' की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अम्हेच्चयं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१४९।।
वतेवः ॥२-१५० ।। वतेः प्रत्ययस्य द्विरक्तो वो भवति।। महुरव्व पाडलिउत्ते पासाया।
अर्थः- संस्कृत 'वत्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में द्विरुक्त अर्थात् द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति होती है। जैसे:मथुरावत् पाटलिपुत्रे प्रासादाः महुरव्व पाडिलिउत्ते पासाया। ___ 'मथुरावत्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'महुरव्व होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'थ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और २-१५० से 'वत्' प्रत्यय के स्थान पर द्विरुक्त 'व्व' की प्राप्ति होकर 'महुरव्व' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'पाटलिपुत्रे' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पाडलिउत्ते' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१९५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-१७७ से 'प' का लोप; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'त्' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'ङि' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पाडलिउत्ते' रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रासादाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पासाया' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द्' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'पासाया' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१५०।।
सर्वाङ्गादीनस्येकः ।। २-१५१।। _ 'सर्वाङ्गात्' सर्वादेः पथ्यङ्गं {हे. ७-१} इत्यादिना विहितस्येनस्य स्थाने इक इत्यादेशो भवति।। सर्वांगीणः सवङ्गिओ।।
अर्थः- 'सर्वादेः पथ्यंङ्ग' इस सूत्र से-(जो कि हेमचन्द्र संस्कृत व्याकरण के सातवें अभ्यास का सूत्र है) 'सर्वाङ्ग शब्द से प्राप्त होने वाले संस्कृत प्रत्यय 'ईन' के स्थान पर प्राकृत में 'इक' ऐसा आदेश होता है। जैसे:सर्वांगीणः सवङ्गिओ।। _ 'सर्वांगीणः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सवङ्गिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से '' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-१५१ से संस्कृत प्रत्यय 'ईन' के स्थान पर प्राकृत मे 'इक'; आदेश; १-१७७ से आदेश प्राप्त 'इक' में स्थित 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सङ्गिआ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१५१।।
पथो णस्येकट ।। २-१५२।। नित्यंणः पन्थश्च (हे. ६-४) इति यः पथो णो विहितस्य इकट् भवति।। पान्थः। पहिओ।।
अर्थः- हेमचन्द्र व्याकरण के अध्याय संख्या छह के सूत्र संख्या चार से संस्कृत शब्द 'पथ' में नित्य 'ण' की प्राप्ति होती है; उस प्राप्त 'ण' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'इक' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे-पान्थः पहिओ।।
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