Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 354
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 321 'इल्ल' प्रत्यय की 'इ' होने से लोप; १-५ से हलन्त व्यञ्जन 'र' में 'इल्ल' के 'इ' की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पुरिल्लं रूप सिद्ध हो जाता है। 'अधस्तनम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हेट्ठिल्लं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४१ से 'अधस्' के स्थान पर 'हे?' आदेश; २-१६३ से संस्कृत 'तत्र-भव' वाचक प्रत्यय 'तन' के स्थान पर 'इल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से '8' में स्थित 'अ' स्वर का आगे 'इल्ल' प्रत्यय की 'इ' होने से लोप; १-५ से हलन्त व्यञ्जन '8' में 'इल्ल' के 'इ' की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'हेट्ठिल्लं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'उपरितनम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उवरिल्लं' होता है इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; २-१६३ से संस्कृत 'तत्र-भव' वाचक प्रत्यय 'तन' के स्थान पर 'इल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से 'रि' में स्थित 'इ' स्वर का आगे 'इल्लं' प्रत्यय की 'इ' होने से लोप; १-५ से हलन्त व्यञ्जन 'र' में 'इल्लं' के 'इ' की संधिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उवरिल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'आत्मीयम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अप्पुल्ल' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-५१ से 'त्म' के स्थान पर द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-१६३ से संस्कृत चक प्रत्यय 'इय' के स्थान पर प्राकत में उल्ल' प्रत्यय की प्राप्तिः १-१० से प्राप्त 'प्प' में स्थित 'अ'स्वर 'उल्ल' प्रत्यय का 'उ' होने से लोपः १-५ से हलन्त व्यञ्जन 'प्प' में उल्ल' प्रत्यय के 'उ' की संधिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अप्पुल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१६३।। स्वार्थ कश्च वा ॥ २-१६४॥ स्वार्थे कश्चकारादिल्लोल्लो डितो प्रत्ययो वा भवतः।। क। कुडकुम पिञ्जरय। चन्दओ। गयणयम्मि। धरणीहर-पक्खुब्भन्तयं। दुहिअए राम-हिअयए। इहयो आलेछु। आश्लेष्टुमित्यर्थः।। द्विरपि भवति। बहुअयं।। ककारोच्चारणे पैशाचिक-भाषार्थम्। यथा। वतनके वतनकं समप्पेत्तून।। इल्ल। निज्जिआसोअ-पल्लविल्लेण पुरिल्लो। पुरो पुरा वा।। उल्ल। मह पिउल्लओ। मुहुल्ल। हत्थुल्ला। पक्षे चन्दो। गयणं। इह। आलेठं बहु। बहुआ। मुहं। हत्था। कुत्सादि विशिष्टे तु संस्कृतवदेव कप् सिद्धः।। यावादिलक्षणः कः प्रतिनियत विषय एवेति वचनम्। ___ अर्थः- 'स्वार्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है और कभी-कभी वैकल्पिक रूप से 'स्व-अर्थ' में 'इल्ल' और 'उल्ल' प्रत्ययों की भी प्राप्ति हुआ करती है। 'क' से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार है:-कुङकुम पिंजरम्=कुङकुम पिञ्जरयं; चंद्रक:-चन्दओ; गगने गयणयम्मि; धरणी-धर-पक्षोद्भातम् धरणीहर-पक्खुब्भन्तयं; दुःखिते राम हृदये दुहिअए रामहिअयए; इह-इहयं; आश्लेष्टुम् आलेटुअं इत्यादि।। कभी-कभी 'स्व-अर्थ' में दो 'क' की भी प्राप्ति होती हुई देखी जाती है। जैसे:बहुक-कम्=बहुअयं। यहाँ पर 'क' का उच्चारण पैशाचिक-भाषा की दृष्टि से है। जैसे:-वदने वदनं समर्पित्वा-वतन के वतनकं समप्पेत्तू इत्यादि। 'इल्ल' प्रत्यय से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार हैं:-निर्जिताशोक पल्लवेन-निज्जिआसोअ-पल्लविल्लेण; पुरो अथवा पुरा-पुरिल्लो; इत्यादि। 'उल्ल' प्रत्यय से संबंधित उदाहरण इस प्रकार हैं:- ममपितकः मह-पिउल्लओ: मख (क) म महल्लं: हस्ता: (हस्तकाः) हत्थल्ला इत्यादि। पक्षान्तर में चन्दो इह, आलेढुं, बहु, बहुअं, मुहं और हत्था रूपों की प्राप्ति भी होती है। कुत्स, अल्पज्ञान आदि अर्थ में प्राप्त होने वाला 'क' संस्कृत-व्याकरण के समान ही होता है। ऐसे विशेष अर्थ में 'क' की सिद्धि संस्कृत के समान ही जानना। 'यावादिलक्षण' रूप से प्राप्त होने वाला 'क' सूत्रानुसार ही प्राप्त होता है और उसका उद्देश्य भी उसी तात्पर्य को बतलाने वाला होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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