Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 239
आश्लिष्टे ल-धौ ।। २-४९।। आश्लिष्टे संयुक्तस्योर्यथासंख्यं ल ध इत्येतो भवतः ।। आलिद्धो।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'आश्लिष्ट' में रहे हुए प्रथम संयुक्त व्यञ्जन 'श्ल' के स्थान पर 'ल' होता है और द्वितीय संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ध' होता है। यों दोनों संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर यथा-क्रम से 'ल' की और 'ध' की प्राप्ति होती है। जैसे:- आश्लिष्ट: आलिद्धो।। 'आश्लिष्टः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आलिद्धो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४९ से संयुक्त
पर 'ल' की प्राप्ति: २-४९ से ही द्वितीय संयक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ध' की प्राप्तिः २-८९ से प्राप्त 'ध' को द्वित्व 'ध्ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' को 'द्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'आलिद्धा' रूप सिद्ध हो जाता है।। २-४९॥
चिन्हे न्धो वा ।। २-५०॥ चिन्हे संयुक्तस्य न्धो वा भवति ।। ण्हापवादः ।। पक्षे सो पि ।। चिन्धं इन्धं चिण्ह।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'चिन्ह' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न' के स्थान पर विकल्प से 'न्ध' की प्राप्ति होती है। सूत्र संख्या २-७५ में यह बतलाया गया है कि संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है। तद्नुसार सूत्र संख्या २-७५ की तुलना में सूत्र संख्या २-५० को अपवाद रूप सूत्र माना जाय; ऐसा वृत्ति में उल्लेख किया गया है। वैकल्पिक पक्ष होने से तथा अपवाद रूप स्थिति की उपस्थिति होने से 'चिन्ह' के प्राकृत रूप तीन प्रकार के हो जाते हैं; जो कि इस प्रकार है-चिह्नम्= चिन्धं अथवा इन्धं चिण्ह।। ___ "चिह्नम्। संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप चिन्धं, इन्धं और चिण्हं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-५० से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न' के स्थान पर विकल्प से 'न्ध की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'चिन्छ' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप इन्धं की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
तृतीय रूप 'चिण्ह' में सूत्र संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर तृतीय रूप 'चिण्ह' भी सिद्ध हो जाता है। ॥ २-५०।।
भस्मात्मनोः पो वा ।। २-५१।। अनयोः संयुक्तस्य पो वा भवति॥ भप्पो भस्सो। अप्पा अप्पाणो। पक्षे अत्ता।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'भस्म' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'स्म' के स्थान पर विकल्प से 'प' की प्राप्ति होती है। जैसे:(भस्मन् के प्रथमान्त रूप) भस्मा भप्पो अथवा भस्सो।। इसी प्रकार से संस्कृत शब्द 'आत्मा' में स्थित संयुक्त व्यंजन 'त्म' के स्थान पर भी विकल्प से 'प' की प्राप्ति होती है। जैसे-(आत्मन् के प्रथमान्त रूप) आत्मा-अप्पा अथवा अप्पाणा।
वैकल्पिक पक्ष होने से रूपान्तर में 'अत्ता' भी होता है। ___ 'भस्मन् संस्कृत मूल रूप है। इसके प्राकृत रूप 'भप्पो' और 'भस्सो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्म' के स्थान पर विकल्प से 'प' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; १-३२ से 'भस्म' शब्द को पुल्लिंगत्व की प्राप्ति होने से ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'भप्पो' सिद्ध हो जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org