Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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278 : प्राकृत व्याकरण
शब्दों के अन्त्य अथवा अनन्त्य व्यञ्जन का द्वित्व नित्य होता है; जबकि उत्तर सूत्र में शब्दों के अन्त्य अथवा अनन्त्य व्यञ्जन का द्वित्व वैकल्पिक रूप से ही होता है। इसीलिये 'तैलादो' सूत्र से 'सेवादौ वा' सूत्र में 'वा' अव्यय अधिक जोड़ा गया है। इस प्रकार यह अन्तर और ऐसी विशेषता दोनों ही ध्यान में रहना चाहिये ।
'सेवा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सेव्वा' और 'सेवा' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २- ९९ से अन्त्य व्यञ्जन ' व' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व की प्राप्ति होकर क्रम से 'सेव्वा' और 'सेवा' दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'नीडम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'नेड्ड' और 'नीड' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - १०६ से 'ई' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; २-९९ से 'ड' व्यञ्जन को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'नेड' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'नीड' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०६ में की गई है।
'नक्खा' और 'नहा' दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या २ - ९० में की गई है।
'निहितः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'निहित्तो' और 'निहिओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'त' के स्थान पर द्वित्व 'त' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'निहित्तो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(निहितः=) निहिआ में सूत्र संख्या १ - १७७ से 'त्त' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'निहिओ' भी सिद्ध हो जाता है।
'व्याहृतः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप वाहित्तो और वाहिओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; १ - १२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २ - ९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'त' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'वाहित्तो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(व्याहृतः=) वाहिओ की साधनिका में प्रथम रूप के समान ही सूत्रों का व्यवहार होता है । अन्तर इतना सा है कि सूत्र संख्या २-९९ के स्थान पर सूत्र संख्या १ - १७७ से अन्त्य व्यञ्जन 'त' का लोप हो जाता है। शेष क्रिया प्रथम रूपवत् ही जानना ।
'मृदुकम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'माउक्क' और 'माउअं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'माउक्क' की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १२७ में की गई है।
द्वितीय रूप- (मृदुकम्=) 'माउअं' में सूत्र संख्या १ - १२७ से 'ऋ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति १ - १७७ से 'द्' और 'क्' दोनों व्यञ्जनों का लोप; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'माउअं' भी सिद्ध हो जाता है।
'एकः ' संस्कृत संख्या वाचक विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'एक्को' और 'एओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २ - ९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'क' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १ - १७७ से 'क्' का लोप एवं दोनों ही रूपों में ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'एक्को' और 'एओ' दोनों रूप की सिद्धि हो जाती है।
'कुतूहलम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कोउहल्लं' और 'कोउहलं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'कोउहल्ल की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ११७ में की गई है।
द्वितीय रूप- (कुतूहलम्=) 'कोउहलं' में सूत्र संख्या १- ११७ से प्रथम हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति;
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