Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
272 : प्राकृत व्याकरण
प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'आसं' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'प्रेष्यः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पेसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७८ से "य" का लोप; १-२६० से 'ष' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पेसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
ओमालं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३८ में की गई है। आणा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-८३ में की गई है।
'आज्ञप्तिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आणत्ती' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'आणत्ती' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आज्ञपनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आणवणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' का 'व'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'आणवणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
तंसं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२६ में की गई है। संझा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। विंझा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२५ में की गई है।
'कांस्यालः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कंसालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'का' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कंसालो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-९२।।
र-होः ।। २-९३॥ रेफहकारयोर्द्वित्वं न भवति।। रेफः शेषो नास्ति।। आदेश। सुन्देरं। बम्हचे। पेरन्त।। शेषस्य हस्य। विहलो।। आदेशस्य। कहावणो।।
अर्थः- किसी संस्कृत शब्द के प्राकृत रूपान्तर में यदि शेष रूप से अथवा आदेश रूप से 'र' वर्ण की अथवा 'ह' वर्ण की प्राप्ति हो; तो ऐसे 'र' वर्ण को एवं 'ह' वर्ण को द्वित्व की प्राप्ति नहीं होती है। रेफ रूप 'र' वर्ण कभी भी शेष रूप से उपलब्ध नहीं होता है; अतः शेष रूप से संबंधित 'र' वर्ण के उदाहरण नहीं पाये जाते हैं। आदेश रूप से 'र' वर्ण की प्राप्ति होती है; इसलिये इस विषयक उदाहरण इस प्रकार हैं:- सौन्दर्यम्-सुन्देरं।। ब्रह्मचर्यम्=बम्हचेरं और पर्यन्तम्-पेरन्त।। इन उदाहरणों में संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के स्थान पर 'र' वर्ण के आदेश रूप से प्राप्ति हुई है। इसकारण से 'र' वर्ण को सूत्र संख्या २-८९ से द्विर्भाव की स्थिति होनी चाहिये थी; किन्तु सूत्र संख्या २-९३ से निषेध कर देने से द्विर्भाव की प्राप्ति नहीं हो सकती है। शेष रूप से प्राप्त 'ह' का उदाहरण:-विह्वलः विहलो।। इसमें द्वितीय 'व्' का लोप होकर शेष 'ह' की प्राप्ति हुई है; किन्तु इसमें भी २-९३ से द्विर्भाव की स्थिति नहीं हो सकती है। आदेश रूप से प्राप्त ह' का उदाहरणःकार्षापणः कहावणो।। इस उदाहरण से संयुक्त व्यञ्जन 'र्ष' के स्थान पर सूत्र संख्या १-७१ से 'ह' रूप आदेश की प्राप्ति हुई है; तदनुसार सूत्र संख्या २-८९ से 'ह' वर्ण को द्विर्भाव की स्थिति प्राप्त होनी चाहिये थी; परन्तु सूत्र संख्या २-९३ से निषेध कर देने से द्विर्भाव की प्राप्ति नहीं हो सकती है। यों अन्य उदाहरणों में भी शेष रूप से अथवा आदेश से प्राप्त होने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org