Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 63 'पुराकर्म संस्कृत शब्द है। इसका आर्ष प्राकृत रूप 'पुरेकम्म' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-५७ की वृत्ति से 'आ' का 'ए'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'म' का द्वित्व 'म्म'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पुरेकम्म रूप सिद्ध हो जाता है।।१-५७।।
वल्ल्यु त्कर-पर्यन्ताश्चर्य वा ॥१-५८॥ एषु आदेरस्य एत्वं वा भवति। वेल्ली वल्ली। उक्केरो उक्करो। पेरन्तो पज्जन्तो। अच्छेरं अच्छरिअं अच्छअरं अच्छरिज्जं अच्छरी।
अर्थः-वल्ली, उत्कर, पर्यन्त और आश्चर्य में आदि 'अ' का विकल्प से 'ए' होता है। जैसे-वल्ली-वेल्ली और वल्ली। उत्करः उक्केरो और उक्करो। पर्यन्तः पेरन्तो और पज्जन्तो। आश्चर्यम्=अच्छेरं, अच्छरिअं इत्यादि।
'वल्ली' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'वेल्ली' और 'वल्ली' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-५८ से आदि 'अ' का विकल्प से 'ए' और ३-१९ से स्त्रीलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर दीर्घ का दीर्घ ही होकर 'वेल्ली' और 'वल्ली' रूप सिद्ध हो जाते हैं। _ 'उत्करः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'उक्केरो' और 'उक्करो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; २-८९ से 'क' का द्वित्व 'क्क'; १-५८ से 'क' के 'अ' का विकल्प से 'ए'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'उक्केरो' और 'उक्करो' रूप सिद्ध हो जाते हैं। __ 'पर्यन्तः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पेरन्तो' और 'पज्जन्तो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-५८ से 'प' के 'अ' का 'ए'; २-६५ से 'य' का 'र'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'पेरन्तो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप पज्जन्तो में सूत्र संख्या २-२४ से 'र्य' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'पज्जन्ता' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'आश्चर्यम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'अच्छेरं', अच्छरिअं, अच्छअरं, अच्छरिजं और अच्छरीअं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'आ' का 'अ'; २-२१ से 'श्च' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ्' का 'च'; २-६६ से 'य' का 'र'; १-५८ से 'छ' के 'अ' का विकल्प से 'ए'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर अच्छेरं रूप सिद्ध हो जाता है। २-६७ से पक्ष में 'य' का विकल्प से 'रिअ'; 'अर'; 'रिज्ज' और 'रीअ ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से अच्छरिअं, अच्छअरं, अच्छरिज्जं और अच्छरीअंरूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-५८।।
ब्रह्मचर्य चः ॥ १-५९ ॥ ब्रह्मचर्य रब्दे चस्य अत एत्वं भवति।। बम्हचे।। अर्थः- ब्रह्मचर्य शब्द में 'च' के 'अ' का 'ए' होता है। जैसे - बह्मचर्यम्=बम्ह चे।। 'ब्रह्मचर्यम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'बम्हचेरं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७४ से 'ह्म' का 'म्ह', २-६३ से 'र्य' का 'र' ; १-५९ से 'च' के 'अ' का 'ए', ३-२५ से प्रथमा एकवचन में नपुंसकलिंग में, 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'बम्हचेरं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-५९।।
तोन्तरि ॥ १-६० ॥ __ अन्तर शब्दे तस्य अत एत्वं भवति। अन्तः पुरम्। अन्ते उरं। अन्तश्चारी। अंतेआरी। क्वचिन्न भवति। अन्तग्गय। अन्तो-वीसम्भ-निवेसिआणं।
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