Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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166 : प्राकृत व्याकरण
१-१२६ से 'ऋ' के स्थान 'अ' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वावडा रूप सिद्ध हो जाता है।
पताका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पडाया होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १–१७७ से 'क' का लोप और १-१८० से लुप्त 'क्' में से शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' प्रत्यय होकर पडाया रूप सिद्ध हो जाता है।
बहेडओ रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या १-८८ में की गई है। हरडइ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९९ में की गई है।
मृतकम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मडयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से'ऋ' के स्थान पर पर 'अ' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' में से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मडयं रूप सिद्ध हो जाता है।
दुष्कृतम् संस्कृत रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत में दुक्कडं रूप होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'ष्' का लोप; १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-८९ से 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' को 'ड' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दुक्कडं रूप सिद्ध हो जाता है।
सुकृतम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत सुक्कडं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति: २-८९ से 'क' को द्वित्व'कक' की प्राप्ति: १-२०६ से'त' को 'ड' की प्राप्ति: ३-२५ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सुक्कडं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ हाहृतं संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप आहडं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' को 'ड' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर आहडं रूप सिद्ध हो जाता है।
अवहृतं संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अवहडं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिग में सि प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अवहडं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रतिसमयं संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पइसमयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पइसमयं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रतीपम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पईवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-२३१ से द्वितीय 'प' को 'व' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पईवं रूप सिद्ध हो जाता है।
संप्रति संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप संपइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; और १-१७७ से, 'त्' का लोप होकर संपइ रूप सिद्ध हो जाता है। __ प्रतिष्ठानम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पइट्टाणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से शेष 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्'
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