Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 209
प्रश्नः- 'महादेव-अर्थ वाचक 'स्थाणु शब्द हो तो उस समय में स्थाणु' शब्द में स्थित संयुक्त 'स्थ' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति क्यों नहीं होती है ? अर्थात् मूल-सूत्र में अहर याने महादेव-वाचक नहीं हो तो;-ऐसा क्यों उल्लेख किया गया है ?
उत्तर:- यदि 'स्थाणु' शब्द का अर्थ महादेव होगा; तो उस समय में स्थाणु' का प्राकृत रूपान्तर 'थाणु' ही होगा; न कि 'खाणु'। ऐसा परम्परा-सिद्ध रूप निश्चित है; इस बात को बतलाने के लिये ही मूल-सूत्र में अहर' याने 'महादेव-अर्थ में नहीं ऐसा उल्लेख करना पड़ा है। जैसेः- स्थाणुः= (ठूठा वृक्ष) खाणू।। स्थाणोः रेखा-(महादेवजी का चिन्ह) थाणुणो रेहा।। इस प्रकार 'खाणु' में और 'थाणु' में जो अन्तर है; वह ध्यान में रक्खा जाना चाहिये।।
'स्थाणुः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खाणू' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७ से संयुक्त व्यञ्जन ‘स्थ' का 'ख' और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'खाणू रूप सिद्ध हो जाता है।
'स्थाणोः' संस्कृत षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'थाणुणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; ३-२३ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'थाणुणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रेखा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रेहा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर 'रेहा' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-७ ।।
स्तम्भे स्तो वा ।। २-८ ॥ स्तम्भ शब्दे स्तस्य खो वा भवति ।। खम्भो । थम्भो । काष्ठादिमयः ।। __ अर्थः- 'स्तम्भ' शब्द में स्थित 'स्त' का विकल्प से 'ख' होता है। जैसे:- स्तम्भः खम्भो अथवा थम्भो।। स्तम्भ अर्थात् लकड़ी आदि का निर्मित पदार्थ विशेष।७।। __ 'स्तम्भः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'खम्भा' और 'थम्भा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८ से 'स्त' का विकल्प से 'ख' और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-९ से 'स्त' का 'थ' तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'खम्भो' और 'थम्भा' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।।२-८।।
थ-ठाव स्पन्दे ॥ २-९ ॥ स्पन्दाभाववृत्तौ स्तम्भे स्तस्य थठौ भवतः ।। थम्भो । ठम्भो ।। स्तम्भ्यते । थम्भिज्जइ ठम्भिज्जइ।।
अर्थः- 'स्पन्दाभाव' अर्थात् हलन-चलन क्रिया से रहित-जड़ी भूत अवस्था की स्थिति में स्तम्भ' शब्द प्रयुक्त हुआ हो तो उस समय 'स्तम्भ' शब्द में स्थित 'स्त' का 'थ' भी होता है और 'ठ' भी होता है; यों स्तम्भ के प्राकृत रूपान्तर में दो रूप होते हैं। जैसे:- स्तम्भः थम्भो अथवा ठम्भो।। स्तम्भ्यते (उससे स्तम्भ के समान स्थिर हुआ जाता है)-थम्भिज्जइ अथवा ठम्भिज्जइ।।
थम्भा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-८ में की गई है। 'स्तम्भः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ठम्भो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-९ से विकल्प से 'स्त' का 'ठ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ठम्भो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'स्तम्भयते' संस्कृत कर्मणि क्रियापद रूप है। इसके प्राकृत रूप 'थम्भिज्जइ' और 'ठम्भिज्जइ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-९ से 'स्त' का विकल्प से 'थ'; ३-१६० से संस्कृत कर्मणिप्रयोग में प्राप्त 'य' प्रत्यय के स्थान
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