Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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170 : प्राकृत व्याकरण
तातः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप ताओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ताओ रूप सिद्ध हो जाता है।
कतरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप कयरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कयरा रूप सिद्ध हो जाता है।
दुइओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९४ में की गई है।
ऋतुः संस्कृत रूप है। इसका शौरसेनी और मागधी भाषा में उदू रूप होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ' को 'उ' की प्राप्ति; ४-२६० से 'त्' को 'द्' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर उदू रूप सिद्ध हो जाता है।
रजतम् संस्कृत रूप है। इसका शौरसेनी और मागधी भाषा में रयदं रूप होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए ‘ज्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ४–२६० से 'त्' को 'द्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रयदं रूप सिद्ध हो जाता है।
धृतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दिही होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१३१ से 'धृति' के स्थान पर 'दिहि' रूप का आदेश और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर दिही रूप सिद्ध हो जाता है।। १-२०९।।
सप्ततौ रः।। १-२१०॥ सप्ततौ तस्य रो भवति।। सत्तरी।। अर्थः-सप्तति शब्द में स्थित द्वितीय 'त्' के स्थान पर 'र' का आदेश होता है। जैसे:-सप्ततिः सत्तरी।।
सप्ततिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सत्तरी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से प्रथम 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-२१० से द्वितीय 'त्' के स्थान पर 'र का आदेश और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर सत्तरी रूप सिद्ध हो जाता है।। १-२१०।।
अतसी-सातवाहने लः।। १-२११।। अनयोस्तस्य लो भवति। अलसी। सालाहणो। सालवाहणो। सालाहणी भासा।।
अर्थः-अतसी और सातवाहन शब्दों में रहे हुए 'त' वर्ण के स्थान पर 'ल' वर्ण की प्राप्ति होती है। जैसे:-अतसी-अलसी।। शातवाहनः-सालाहणो और सालवाहणो।। शातवाहनी भाषा-सालाहणी भासा।।।
अतसी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अलसी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२११ से 'त्' के स्थान पर 'ल' का आदेश होकर अलसी रूप सिद्ध हो जाता है।
सालाहणो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८ में की गई है।
शातवाहनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सालवाहणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स; १-२११ से 'त' के स्थान पर 'ल' का आदेश; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में • अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सालवाहणो रूप सिद्ध हो जाता है।
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