Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 181 की हस्व 'इ'; १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर महिवालो रूप सिद्ध हो जाता है।
गोपायति संस्कत सकर्मक क्रियापद का रूप है इसका प्राकत रूप गोवइ होता है। इसमें सत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व':४-२३९ से संस्कत व्यञ्जनान्त धात 'गोप में प्राप्त संस्कत धात्विक विकरण प्रत्यय 'आय के स्थान पर प्राकत में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गोवइ रूप सिद्ध हो जाता हैं।
तपति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप तवइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तवइ रूप सिद्ध हो जाता है। कम्पइ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३० में की गई है।
अप्रमत्तोः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पमत्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७९ से 'प' का द्वित्व 'प्प'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पमत्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
सुखेन संस्कृत तृतीयान्त रूप है इसका प्राकृत रूप सुहेण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' का 'ह'; ३-६ से अकारान्त पुल्लिंग अथवा नपुंसकलिंग वाले शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; और ३-१४ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'अ' को 'ए' की प्राप्ति होकर सुहेण रूप सिद्ध हो जाता है।
पढइ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१९९ में की गई है।
कपिः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप कई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'प्' का लोप ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर कई रूप सिद्ध हो जाता है। रिऊ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है।।१-२३१।।
पाटि-परुष-परिघ-परिखा-पनस-पारिभद्रे फः।। १-२३२॥ ण्यन्ते पटि धातो परूषादिषु च पस्य फो भवति।। फालेइ फाडेइ फरूसो फलिहो। फलिहा। फणसो। फालिहद्दो।
अर्थः-प्रेरणार्थक क्रिया बोधक प्रत्यय सहित पटि धातु में स्थित 'प' का और पुरुष, परिघ, परिखा, पनस एवं पारिभद्र शब्दों में स्थित 'प' का 'फ' होता है। जैसे:-पाटयति-फालेइ अथवा फाडेइ।। परूषः-फरूसो। परिघः फलिहो।। परिखा-फलिहा।। पनसः-फणसो। पारिभद्रः फालिहद्दो।।
फालेइ और फाडेइ रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-११८ में की गई है।
परूषः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत फरूसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १-१६० से 'ष' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फरूसो रूप सिद्ध हो जाता है।
परिघः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत फलिओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १-२५४ से 'र' का 'ल'; १-१८७ से 'घ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फलिहो रूप सिद्ध हो जाता है।
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