Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 203
से दोनों रूपों में द्वितीय 'प' का 'व'; ४-२१९ से दोनों रूपों में स्थित 'त' का 'ड'; १-२२८ से दोनों रूपों में 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'पा-वडणं' और 'पाय-वडणं दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ___ 'पाद-पीठम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पा-वीढं' और 'पाय-वीढं होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२७० से अन्तर्मध्यवर्ती स्वर सहित 'द' का विकल्प से लोप; द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२३१ से दोनों रूपों में द्वितीय 'प' का 'व'; १-१९९ से दोनों रूपों में 'ठ' का 'ढ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की दोनों रूपों में प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'पा-वीढं और 'पाय-वीढं' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।।१-२७०।।
यावत्तावज्जीविता वर्तमानावट-प्रावरक-देव कुलैव मेवे वः।। १-२७१।।
यावदादिषु सस्वर वकारस्यान्तर्वर्तमानस्य लुग् वा भवति।। जा जाव । ता ताव । जीअंजीविअं। अत्तमाणो आवत्तमाणो। अडो अवडो । पारओ पावारओ । दे-उलं देव उलं एमेव एवमेव । अन्तरित्येव । एवमेवेन्त्यस्य न भवति ॥ __ अर्थ:- यावत्, तावत्, जीवित, आवर्तमान, अवट, प्रावरक, देवकुल और एवमेव शब्दों के मध्य भाग में (अन्तर भाग में) स्थित 'स्वर सहित-व' का अर्थात् संपूर्ण 'व' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होता है। जैसे:- यावत-जा अथवा जाव।। तावत्= ता अथवा ताव।। जीवितम्=जीअं अथवा जीवि। आवर्तमानः अत्तमाणो अथवा आवत्तमाणो।। अवट: अडो अथवा अवडो।। प्रावारक:=पारओ अथवा पावारओ।। देवकुलम् = दे-उलं अथवा देव उलं और एवमेव-एमेव अथवा एवमेव।।
प्रश्न-'अन्तर्-मध्य-भागी' 'व' का ही लोप होता है; ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- यदि 'अन्तर्-मध्य-भागी' नहीं होकर अन्त्य स्थान पर स्थित होगा तो उस 'व' का लोप नहीं होगा। जैसे:एवमेव में दो वकार' हैं; तो इनमें से मध्यवर्ती 'वकार' का ही विकल्प से लोप होगा; न कि अन्त्य 'वकार' का। ऐसा ही अन्य शब्दों के सम्बन्ध में जान लेना।।
'यावत्' संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत में 'जा' और 'जाव' रूप होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज'; १-२७१ से अन्तर्वर्ती 'व' का विकल्प से लोप; और १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर क्रम से 'जा' और 'जाव' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
"तावत्' संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत में 'ता' और 'ताव' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२७१ से अन्तर्वी 'व' का विकल्प से लोप और १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर क्रम से 'ता' और 'ताव' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'जीवितम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जी' और 'जीविअं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२७१ से अन्तर्वर्ती स्वर सहित 'वि' का अर्थात् संपूर्ण 'वि' व्यञ्जन का विकल्प से लोप; और १-१७७ से दोनों रूपों में 'त' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'जी' और 'जीविअं दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ___ आवर्तमानः संस्कृत वर्तमान कृदन्त का रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अत्तमाणो' और 'आवत्तमाणो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से आदि दीर्घ स्वर 'आ' को 'अ' की प्राप्ति; १-२७१ से अन्तर्वर्ती सस्वर 'व' का विकल्प से लोप; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अत्तमाणो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से सूत्र संख्या १-२७१ का अभाव जानना और शेष साध निका प्रथम रूप के समान होकर द्वितीय रूप 'आवत्तमाणा' भी सिद्ध हो जाता है।
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