Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 141 ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुगआ रूप सिद्ध हो जाता है।
अगुरुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अगुरु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व 'उ' को दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति होकर अगुरु रूप सिद्ध हो जाता है।
सचापम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सचावं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' को 'व' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सचाव रूप सिद्ध हो जाता है। ___ व्यजनम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप विजणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-४६ से शेष 'व' में स्थित 'अ' को 'इ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर विजणं रूप सिद्ध हो जाता है। .. सुतारम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सुतारं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर विजणं रूप सिद्ध हो जाता है।
विदुरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विदुरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विदुरो रूप सिद्ध हो जाता है।
सपापम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सपावं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' को 'व' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सपावं रूप सिद्ध हो जाता है।
समवायः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप समवाओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर समवाओ रूप सिद्ध हो जाता है।
देवः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप देवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देवो रूप सिद्ध हो जाता है।
दानवः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दाणवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दाणवो रूप सिद्ध हो जाता है।
शंकरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संकरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति; १-२५ से 'ङ' का अनुस्वार; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संकरो रूप सिद्ध हो जाता है।
संगमः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संगमो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संगमो रूप सिद्ध हो जाता है।
नक्तंचरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नक्कंचरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'त्' का लोप; २-८९ से शेष 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नक्कंचरो रूप सिद्ध हो जाता है।
धनञ्जयः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप धणंजओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' को 'ण' की
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