Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
144 प्राकृत व्याकरण
द्वितीय रूप जलयरो में सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'च' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप जलयरो भी सिद्ध हो जाता है।
बहुतरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप बहुतरो और बहुअरो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप बहुतरो में सूत्र-संख्या ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप बहुतरो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप बहुअरो में सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'तू' का लोप; और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप बहुअरा भी सिद्ध हो जाता है।
सुखदः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सुहदा और सुहओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सुहदो में सूत्र - संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप सुहदो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप सुहओ में सूत्र - संख्या १- १८७ 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'द्' का लोप; और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप सुहओ भी सिद्ध हो जाता है।
'स' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप सो और स होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३-३ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर वैकल्पिक रूप से 'सो' और 'स' रूप सिद्ध होते हैं। उण अव्यय की सिद्धि सूत्र - संख्या १- ६५ में की गई है।
सा सर्वनाम की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ९७ में की गई है।
च संस्कृत संबंध वाचक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'अ' होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'च्' का लोप होकर 'अ' रूप सिद्ध हो जाता है।
चिह्न संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप इन्धं होता है। इनमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'च्' का लोप; २-५० से 'ह्न' के स्थान पर ‘न्ध' की प्राप्ति; ३ - २५ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर इन्धं रूप सिद्ध हो जाता है।
पिशाची संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पिसाजी होता है। इनमें सूत्र- संख्या १-२६० से ‘श्' का ‘स्’; १-१७७ की वृत्ति से 'च' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति होकर पिसाजी रूप सिद्ध हो जाता है।
एकत्वम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप एकत्तं होता है। इनमें सूत्र - संख्या १ - १७७ की वृत्ति से अथवा ४- ३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; २-७९ से 'व्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर एगत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
एकः संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप एगो होता है। इसमें सूत्र- संख्या १- १७७ की वृत्ति से अथवा ४-३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एगो रूप सिद्ध हो जाता है।
अमुकः संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप अमुगो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३९६ से ‘क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमुगो रूप सिद्ध हो जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org