Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 159
स्फटिके लः।। १-१९७।। स्फटिके टस्य लो भवति।। फलिहो।। अर्थः स्फटिक शब्द में स्थित 'ट' वर्ण का 'ल' होता है। जैसः-स्फटिकः-फलिहो।। फलिहो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१८६ में की गई है।। १-१९७।।
चपेटा-पाटौ वा।। १-१९८॥ चपेटा शब्दे ण्यन्ते च पटि धातो टस्य लो वा भवति।। चविला चविडा। फालेइ फाडेह।
अर्थः-चपेटा शब्द में स्थित 'ट' का विकल्प से 'ल' होता है। तदनुसार एक रूप में तो 'ट' का 'ल' होगा और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से 'ट्' का 'ड' होगा। जैसे:-चपेटा-चविला अथवा चविडा।। इसी प्रकार से 'पटि' धातु में भी प्रेरणार्थक क्रियापद का रूप होने की हालत में 'ट' का वैकल्पिक रूप से 'ल' होता है। तदनुसार एक रूप में तो 'ट' का 'ल' होगा और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से 'ट' का 'ड' होगा।। जैसे:-पाटयति फालेइ और फाडेइ।।
चपेटाः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप चविला और चविडा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व';१-१४६ से 'ए' को 'इ' की प्राप्ति; १-१९८ से 'ट' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ल' का आदेश होकर चविला रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप चविडा की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४६ में की गई है।
पाटयति संस्कृत सकर्मक प्रेरणार्थक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप फालेइ और फाडेइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १-१९८ से वैकल्पिक रूप से 'ट्' के स्थान पर 'ल' का आदेश; ३-१४९ से प्रेरणार्थक में संस्कृत प्रत्यय 'णि के स्थान पर अर्थात् 'णि' स्थानीय 'अय' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति से 'ल्+ए' ले; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप फालेइ भी सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप फाडेइ में सूत्र-संख्या १-१९५ से वैकल्पिक पक्ष होने से 'ट्' के स्थान पर 'ड्' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप फाडेइ भी सिद्ध हो जाता है।।। १-१९८।।
ठो ढः।। १-१९९।। स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेष्ठस्य ढो भवति।। मढो। सढो। कमढो। कुढारो। पढइ।। स्वरादित्येव। वेकुंठो।। असंयुक्तस्येत्येव। चिट्ठइ।। अनादेरित्येव। हिअए ठाई।।
अर्थः-यदि किसी शब्द में 'ठ' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ; असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् हलन्त भी न हो तथा आदि में भी स्थित न हो; तो उस 'ठ' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति होती है जैसे:-मठः मढो; शठः सढो; कमट: कमढो; कुठारः-कुढारो और पठति पढइ।।
प्रश्न:- ‘स्वर से परे रहता हुआ हो' ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तर:- क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ठ' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ नहीं होगा तो उस 'ठ' का 'ढ' नहीं होगा। जैसे: वैकुण्ठः वेकुंठो।।
प्रश्नः-'संयुक्त याने हलन्त नहीं होना चाहिये; याने स्वर से युक्त होना चाहिये' ऐसा क्यों कह गया है?
उत्तरः-क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ठ' वर्ण संयुक्त होगा-हलन्त होगा-स्वर से रहित होगा तो उस 'ठ' का 'ढ' नहीं होगा। जैसे:-तिष्ठति-चिट्टइ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org