Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 73 अर्थः-आसार शब्द में आदि 'आ' का विकल्प से 'ऊ' होता है। जैसे-आसार: ऊसारो और आसारो।।
'आसारः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'ऊसारा' और 'आसारो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-७६ से आदि 'आ' का विकल्प से 'ऊ'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर क्रम से "ऊसारो' और 'आसारो रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-७६ ।।
आर्यायां यः श्वश्राम् ।। १-७७ ।। आर्या शब्देश्वश्र्वां वाच्यायां यस्यात ऊर्भवति।। अज्जू।। श्वश्र्वामिति किम्। अज्जा।।
अर्थः-आर्या शब्द का अर्थ जब 'सासु होवे तो आर्या के 'या' के 'आ' का 'ऊ' होता है। जैसे-आर्या-अज्जु- (सासु)। श्वश्रु-याने सासु ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर- जब आर्या का अर्थ सासु नहीं होगा; तब 'र्या' के 'आ' का 'ऊ' नहीं होगा। जैसे-आर्या-अज्जा।। (साध्वी)।
'आर्या'-संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अज्जू होता है। इसमें सूत्र संख्या १-७७ से 'या' के 'आ' का 'ऊ'; २-२४ से 'र्य' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व'ज्ज'; १-८४ से आदि 'आ' का 'अ'; ३-१९ से स्त्रीलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर की दीर्घता-होकर अर्थात् 'उ' का 'ऊ' ही रहकर 'अज्जू रूप सिद्ध हो जाता है।
'आर्या' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अज्जा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से 'र्य' का 'अ'; २-८९ से प्राप्त 'जका द्वित्व 'ज्ज'; १-८४ से आदि 'आ' का 'अ'; सिद्ध हेम व्याकरण के २-४-१८ के अनुसार स्त्रीलिंग में प्रथमा के एकवचन में आकारान्त शब्द में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अज्जा' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-७७।।
एद् ग्राह्ये ।। १-७८ ।। ग्राह्य शब्दे आदेरात् एद् भवति।। गेज्झां अर्थः-ग्राह्य शब्द में आदि 'आ' का 'ए' होता है। जैसे-ग्राह्यम्=गेज्झं। 'ग्राह्यम्' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'गेझं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-७८ से आदि 'आ' का 'ए'; २-२६ से 'ह्य' का 'झ'; २-८९ से प्राप्त 'झ' का द्वित्व 'झ्झ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' का 'ज्'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'गेझं रूप सिद्ध हो जाता है।। ७८।।
द्वारे वा ॥ १-७९ ।। द्वार शब्दे आत एद् वा भवति।। दे। पक्षे। दुआरं दारं वारं।। कथं नेरइओ नारइओ। नैरयिक नारयिक शब्दयो भविष्यति।। आर्षे अन्यत्रापि। पच्छेकम्म। असहेज्ज देवासुरी।।
अर्थः-द्वार शब्द में 'आ' का 'ए' विकल्प से होता है। जैसे-द्वारम्=देरं। पक्ष में-दुआरं दारं और वारं जानना। नेरइओ और नारइओ कैसे बने हैं ? उत्तर- 'नैरयिक' ऐसे मूल संस्कृत शब्द से नेरइओ बनता है और 'नारयिक' ऐसे मूल संस्कृत शब्द से 'नारइओ' बनता है। आर्ष प्राकृत में अन्य शब्दों में भी 'आ' का 'ए' देखा जाता है। जैसे - पश्चात कर्म-पच्छे कम्म। यहां पर 'चा' के 'आ' का 'ए' हुआ है। इसी प्रकार से असहाय्य देवासुरी- असहेज्ज देवासुरी। यहां पर 'हा' के 'आ' का 'ए' देखा जाता है।
'द्वारम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'देरं 'दुआर' 'दार' और 'बार' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' का लोप; १-७९ से 'आ' का 'ए'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देरं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में २-११२ से
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