Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 53
सकार के साथ में रहे हुए 'स' के लोप के उदाहरण। जैसे-निस्सहः-नीसहो। यहां पर 'स' के पूर्व में रहे हुए स्वर का दीर्घ हुआ है।
यहां पर वर्ण के लोप होने पर इसी व्याकरण के पाद द्वितीय के सूत्र संख्या ८९ के अनुसार शेष वर्ण को द्वित्व वर्ण की प्राप्ति होनी चाहिये थी; किन्तु इसी व्याकरण के पाद द्वितीय के सूत्र संख्या ९२ के अनुसार द्वित्व प्राप्ति का निषेध कर दिया गया है। अतः द्वित्व का अभाव जानना। __'पश्यति' संस्कृत क्रिया पद है। इसका प्राकृत रूप 'पासई' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-४३ से 'प' के 'अ' का 'आ'; १-२६० से 'श्' का 'स'; ३-१३९ से प्रथम पुरुष के वर्तमान काल के एकवचन में 'ति' के स्थान पर 'इ' होकर 'पासइ' रूप सिद्ध हो जाता है। , 'कश्यपः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'कासवो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से 'क' के 'अ' का 'आ'; १-२३१ में 'प' का 'व'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'विसर्ग' अथवा 'सि' के स्थान पर 'ओ' होकर 'कासवो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आवश्यकम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'आवासयं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से 'व' के 'अ' का 'आ'; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से 'क' के शेष 'अ' का 'य'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्'; १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'आवासयं रूप सिद्ध हो जाता है।
'विश्राम्यति' संस्कृत क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप 'वीसमइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से 'वि' की 'इ' का दीर्घ 'ई'; १-८४ से 'सा' के 'आ'; का 'अ'; २-७८ से 'य' का लोप; ३-१३९ से प्रथम पुरुष में वर्तमान काल के एकवचन में 'ति' के स्थान पर 'इ' होकर 'वीसमइ' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'विश्रामः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वीसामो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से 'वि' की 'इ' की दीर्घ 'ई'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'वीसामो' रूप सिद्ध हो जाता है।
"मिश्रम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'मीसं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४३ से 'इ' की दीर्घ 'ई'; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' के स्थान पर 'म्'; १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'मीसं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'संस्पर्शः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'संफासो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-५३ से 'स्प' का 'फ'; २-७९ से 'र' का लोप; १-४३ से 'फ' के 'अ' का 'आ'; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर 'संफासो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अश्वः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'आसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व' का लोप; १-४३ से आदि 'अ' का 'आ'; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२ से प्रथमा पुल्लिंग एकवचन में 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'आसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
"विश्वसिति' संस्कृत क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप 'वीससइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से 'वि' के 'इ' को दीर्घ 'ई'; ४-२३९ से 'सि' के 'इ' का 'अ'; ३-१३९ से प्रथम पुरुष में वर्तमान काल में एकवचन में 'ति' के स्थान पर 'इ' होकर 'वीससइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
"विश्वासः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वीसासो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से 'वि' के 'इ' की दीर्घ 'ई'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'वीसासो' रूप सिद्ध हो जाता है।
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