Book Title: Prakrit Vidya 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 17
________________ की रचना की । ‘व्याख्या-प्रज्ञप्ति-अंग' में प्राप्त उल्लेख के अनुसार शिष्यत्व अंगीकार करके एवं 'गणधर' पद पर प्रतिष्ठित होकर इन्द्रभूति गौतम ने तीर्थंकर महावीर से साठ हजार प्रश्नों के द्वारा तत्त्वज्ञान अर्जित किया— " च समुच्चये (5) अष्टाविंशतिसहस्रलक्षद्वयपदपरिमाणा जीवः किमस्ति । नास्तीत्यादिगण धरषष्टि सहस्रप्रश्नव्याख्यावित्री व्याख्याप्रज्ञप्ति: २२८०००१ । । ” -- (श्रुतभक्तिः, क्रियाकलाप 173 ) अर्थ :जीव है अथवा नहीं है ? - इसप्रकार गौतम गणधर देव ने साठ हजार प्रश्न भगवान् अरहंत देव महावीर से पूछे। उन सब प्रश्नों का तथा उनके उत्तरों का वर्णन व्याख्या-प्रज्ञप्त्यंग में है । इसकी पद संख्या दो लाख अट्ठाईस हजार जघन्य है । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है कि श्रुत का ग्रहण एवं प्रकटीकरण गौतम गणधर के द्वारा हुआ “वीरमुहकमलणिग्गय-सयल - सुदग्गहण - पवयण- सतत्यं । णमिदूण गोदमं तह, सिद्धंतालयमणुवच्छं ।।” - - (गोम्मटसार जीवकाण्ड 728) तीर्थंकर महावीर के मुखकमल से निर्गत समस्त श्रुतसिद्धान्त के ग्रहण करने और प्रकट करने समर्थ गौतम गणधर को नमस्कार करके मैं इस सिद्धान्तालय (सिद्धांतग्रंथ) को कहूँगा । तीर्थंकर महावीर के तीर्थ में दस 'अन्तः कृत केवली' हुए, जिनका उल्लेख आगमग्रंथों में निम्नानुसार मिलता है उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये “संसारस्यान्तः कृतो यैस्तेऽन्कृतः नमि- मतङ्ग - सोमिल - रामपुत्र सुदर्शन - यमलीकवलीक-निष्कंविल पालम्बाष्टपुत्रा इति एते दस वर्द्धमान - तीर्थंकर - तीर्थे । ।” - ( छक्खंडागम 1, 1, 2, पृ० 104 ) तीस वर्षों तक आचार में 'अहिंसा', विचार में 'अनेकान्त', वाणी में 'स्याद्वाद' एवं जीवन में 'अपरिग्रह ' - इस सिद्धान्त - चतुष्टयी का सम्पूर्ण देश में प्रतिपादन करने के बाद बिहार प्रान्त की ऐतिहासिक 'पावानगरी' के बहुत से सरोवरों मध्यवर्ती 'महापद्म-सरोवर' के निकट स्थित 'महामणिशिलातल' नामक उच्चभाग पर योगनिरोध कर कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को प्रत्यूष - काल में उन्होंने देह का संबंध भी छोड़कर चैतन्यमात्ररूप अवस्थित होकर निर्वाणलाभ किया। इस अवसर पर भी देवों ने उनका 'मोक्षकल्याणक’ गरिमापूर्वक मनाया। प्राकतविद्या जनवरी-जून 2001 (संयुक्ताकersonal use only ! (संयुक्तांक) Jain Education International महावीर चन्दना - विशेषांक 00 15 www.jainelibrary.org

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