Book Title: Prakrit Vidya 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 72
________________ राजसमृद्रियों का ऐतिहासिक केन्द्र ‘राजगृह' ___ भगवान् महावीर के समय में राजगृह' एक अतिप्रतिष्ठित, समृद्धिशाली एवं गरिमापूर्ण ऐतिहासिक नगर था। स्वयं महावीर का भी इस नगर से घनिष्ट सम्बन्ध रहा। राजगृह के निकटवर्ती विपुलाचल' पर्वत पर उनकी प्रथम दिव्यदेशना हुई थी। अत: यह स्थान 'वीरशासन जयन्ती' का पवन-स्मृति-स्थल भी है। भगवान् महावीर के समकालीन महात्मा बुद्ध का भी इस नगर से अच्छा सम्पर्क रहा और वे स्वयं भी इसके प्रशंसकों में रहे हैं। महात्मा बुद्ध ने 'राजगृह' के बारे में लिखा है “एकेमिदाहं महानाम समयं राजगहे विहरामि गिज्झकूटे पव्वते । तेन खोपन समयेन संबहुला निगंठा इसिगिलियस्से कालसिलायं उब्भत्थका होंति आसनं परिक्खित्ता, ओपक्कमिका दुक्खातिप्पा कटुका वेदना वेदयंति । अथ खोहं महानाम सायण्ह-समयं पटिसल्लाण बुड्डितो, येन इसिगिलि पस्सय काण सिला, येन ते निग्गंठा तेन उपसंकमिमम उपसंकमिता ते निग्गठे एतदवोचम: । किन्हु तुम्हे आवुसो निग्गंठा उन्भट्टका आसन-पटिक्खित्ता, ऑक्कमिका दुक्खा तिप्पा कटुका वेदना वेदिययाति। एवं बुत्ते महानाम ते निग्गंठा मं एतदवोचुं "निग्गंठो ! आबु सो नाठपुत्तो सव्वणु सव्वदस्सावी अपरिसेसं ज्ञानदस्सनं परिजानाति चरतो च, तिठ्ठतो च, सुत्तस्स च सततं समितं ज्ञानदस्सनं पक्खुपठितंति; सो एवं आह–अत्थि खो वो निग्गंठा पुव्वे पापं कम्मं कलं, तं इमाय कटकाय दुक्करि-कारिकाय निज्जेरथ यं पतेत्य एतरिह कायेन संवुता, वाचा य संवुता, मनसा संवुता; तं आयतिं पापस्स कम्मस्स अकरणं —इति पुराणानं कम्मानं तपसा कंतिमाभा, नवानं कम्मानं अकारण आयति अनवस्सवो आयति अनवस्सवा कम्मक्खयो, कम्मक्खया दुक्खक्खयो, दुक्खक्खया वेदनाक्खयो, वेदनाक्खया सव्वं दुक्खं निज्जिण्णं भविस्सति। त च पन अम्हाकं रुच्चति चेव खमति च ते च अम्हा अत्ति मनाति ।” । अर्थ :- (महात्मा बुद्ध कहते हैं कि) हे महानाम ! मैं एक समय राजगह के 'गृद्धकूट पर्वत' पर घूम रहा था। तब ऋषिगिरि' के समीप कालशिला पर बहत से निर्ग्रन्थ (जैन साधु) आसन छोड़कर उपक्रम कर रहे थे और तीव्र तपस्या में लगे हुए थे। मैं सायंकाल उनके पास गया और उनसे कहा कि “अरे निर्ग्रन्थो ! तुम आसन छोड़कर उपक्रम कर ऐसी कठिन तपस्या की वेदना का अनुभव क्यों कर रहे हो?" (अर्थात् ऐसे कठोर तप का कष्ट क्यों सह रहे हो?) जब मैंने उनसे ऐसा कहा, तब वे साधु इस तरह बोले कि “निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं, वे सब कुछ जानते और देखते हैं। चलते. ठहरते, सोते, जागते —सब स्थितियों में सदा उनका ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है। उन्होंने कहा है कि निर्ग्रन्थो ! तुमने पहिले पापकर्म किये हैं, उनकी इस कठिन तपस्या से निर्जरा कर डालो। मन-वचन-काय को रोकने (संयमित करने) 00 70 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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