Book Title: Prakrit Vidya 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 105
________________ वर्द्धमान महावीर : जीवन एवं दर्शन -डॉ० प्रेमचन्द रांवका भारतवर्ष की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक परम्परा में भाद्रपद के समान चैत्रमास का भी विशेष महत्त्व है। इस मास के प्रारम्भ में सर्वप्रथम चैत्रकृष्ण चतुर्थी को 23वें तीर्थकर पार्श्वनाथ का ज्ञानकल्याणक, चैत्रकृष्ण नवमी को आद्य तीर्थंकर आदिनाथ का जन्म व तपकल्याणक, चैत्रशुक्ल प्रतिपदा को नवविक्रम सम्वत् का प्रारम्भ और नवरात्र-अध्यात्म-साधना पर्व का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल नवमी को मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम का जन्मोत्सव, चैत्रशुक्ल-त्रयोदशी इस युग के अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर का जन्मोत्सव पुनीत पर्व-तिथियाँ आदि प्राणीमात्र को सुख-शान्ति का सन्देश प्रदान करते हैं। तीर्थंकरों के कई कल्याणक भी इसी माह में ही होते हैं। इसप्रकार न केवल राष्ट्र के अपितु मानव के आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक उन्नयन में प्रारम्भ से ही श्रमण एवं वैदिक धाराओं का महान् योग रहा है। ये दोनों ही धारायें मानव के इहलोक के अभ्युदान और पारलौकिक नि:श्रेयस् की आधार-शिलायें हैं। आत्मोन्नयन के मार्ग में जिसने श्रम अर्थात् संयम, तप, त्याग और ज्ञान-ध्यान पर बल दिया, वह 'श्रमणधारा' कहलायी। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव इस 'श्रमणधारा' के सूत्रधार थे। ऋषभदेव ने भोगमूलक-संस्कृति के स्थान पर कर्ममूलक-संस्कृति की प्रतिष्ठा की। इन्हीं के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम 'भारतवर्ष' हुआ। दैववाद के स्थान पर पुरुषार्थवाद का पाठ ऋषभदेव ने ही पढ़ाया। इन्हीं ऋषभदेव की धर्मसभा में दिव्यध्वनि सुनने देव, मनुष्य व तिर्यंच उपस्थित हुये। चक्रवर्ती सम्राट् भरत भी अपने पुत्र मरीचि के साथ दिव्य-देशनार्थ पहुँचे। भगवान् की देशना से प्रभावित हो मरीचि ने संसार से विमुख हो मुनि-दीक्षा ले ली; परन्तु परिषह की अशक्ति से उनका पुरुषार्थ जवाब दे गया और सरल मार्ग अपना लिया। कुछ समय पश्चात् ऋषभदेव की पुन: धर्म-सभा लगी। चक्रवर्ती भरत भी पहुँचे। भरत ने जिज्ञासावश निवेदन किया - “भगवन् ! क्या इस समय इस धर्मसभा में कोई और भी ऐसी भव्य आत्मा है, जो कालान्तर में तीर्थकर पद प्राप्त करेगी?" उत्तर में अनन्तज्ञान के धनी त्रिकालदर्शी भगवान् ने सम्बोधित किया- “सामने प्रवेशद्वार पर जो साधु खड़ा है और भव्यजीवों को प्रेरित कर इस प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 02 103 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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