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® 'प्राकृतविद्या' का 'अक्तूबर-दिसम्बर 2000' का अंक मिला। पत्रिका का संयोजन विषयवस्तु साजसज्जा सभी मनमोहक, गूढ-अर्थभरी और विचारोत्तेजक है - कुशल सम्पादन-कल्पनाशीलता के लिये बधाई।
आवरण पृष्ठ गूढ अर्थ लिये है, जो रूढ़ अर्थ से भिन्न लगा। गायरूपी व्यवहार' और शावकरूपी 'निश्चय' एक पक्ष; और सिंहनीरूपी 'निश्चय' और बछड़ारूपी 'व्यवहार' - दूसरा पक्ष । अहिंसा की प्रतिष्ठा-हेतु रूढ़-चित्र वस्तुत: निश्चय-व्यवहार की संतति, समन्वय एवं समाहार को सूचित करता है। प्राथमिक अवस्था गाय-शावक की है और उन्नत अवस्था सिंहनी-बछड़े की है। दोनों का एक साथ जलपान व्यवहार-निश्चय का साम्य धर्म प्रति जैसा है। चित्र-संयोजन हेतु बधाई। नवीन कल्पना की यर्थाथता की तर्क-परीक्षा अपेक्षित है।
सम्पादकीय 'गोरक्षा ओर गोवध' की शब्द/भाषा समीक्षा एवं अनुसंधान के लिये आपको बधाई । जबसे गोरक्षा जैन-संस्कृति का अंग बनने लगा, मेरे जैसे अनेकों के दिमाग में यह बात उलझन पैदा करने लगी कि आखिर स्वाध्यायशाला, औषधशाला, धर्मशाला के साथ इनके स्थान पर गौशाला क्यों? अज्ञानता के कारण इस प्रकरण पर चर्चा भी नहीं कर सका। आपके सम्पादकीय ने स्पष्ट कर दिया कि गो-शाला का अर्थ विशाल है; जिसमें वाणी, संयम, आत्मसंयम, पर्यावरण संयम आदि बहुत कुछ आ जाता है। आवश्यकता है कि सभी सम्बद्धजन 'गो' का व्यापक अर्थ समझकर जीवन का अंग बनावें और संकीर्णता से जीवन की रक्षा करें।
राष्ट्रसंत आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज का आलेख 'अग्नि और जीवत्वशक्ति' अग्नि का समग्र शोधकार्य है, जो जैनदर्शन में अग्नि-विषयक सभी आयामों का सूक्ष्म विश्लेषण कर विचार एवं शोध-खोज हेतु व्यापक-सारभूत सामग्री देता है।
विचारक मनीषी पं० संघवी जी का आलेख 'दिगम्बर-परम्परा के मनीषी और वर्तमान स्थिति' उनकी अद्भुत मूल्यांकन क्षमता की सौगात है। उनके निष्कर्ष यथार्थ प्रतीत होते हैं कि जैन-परम्परा में पूर्ववर्ती आचार्यों के अ-समान साहित्यिक मनोवृत्ति अत्यंत अनुदार
और संकचित हो गयी है। वर्तमान में स्थिति तो और भी भयावह हो गयी है; जहाँ अन्य दार्शनिक ग्रंथों का पठन-पाठन तो बहुत दूर, जैन-साहित्य के अमुक-अमुक स्थानों/प्रेसों से प्रकाशित जैन ग्रंथालयों/देवालयों से पृथक् किये जा रहे हैं। आठ सदी की जैन-साहित्यिक-प्रकृति की समीक्षा नये युग का सूत्रपात्र करने में सहयोगी देती। जैनश्रमण-श्रावक, विद्वान सभी साहित्यिक अनुदारता-संकीर्णता को विसर्जित कर विशाल दृष्टिकोण का परिचय देंगे।
ओशो टाइम्स की डॉ० भारिल्लकृत 'समयसार अनुशीलन' की इस समीक्षा से जैनाचार्यों एवं श्रावकों को अपनी निर्णय क्षमता, गुणग्राहकता एवं विशाल हृदयता (जो अनेकान्त से सहज पैदा होती है) को प्रश्नचिह्नित कर देती है। यह समीक्षा हमें विचार/निर्णय का नया आयाम देगी ---ऐसी आशा है। -डॉ० राजेन्द्र कुमार बंसल, अमलाई (म०प्र०) **
Jain Od0130maप्राकृतविद्या+जनवरी-जून 2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांकy.org