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इस अंक के लेखक/लेखिकायें
1. आचार्यश्री विद्यानन्द मुनिराज—भारत की यशस्वी श्रमण-परम्परा के उत्कृष्ट उत्तराधिकारी एवं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी संत परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज वर्तमान मुनिसंघों में वरिष्ठतम हैं।
इस अंक में प्रकाशित 'सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव' शीर्षक आलेख आपके द्वारा विरचित हैं।
2. डॉ० ए०एन० उपाध्ये—प्राकृतभाषा एवं जैनागम-साहित्य के सर्वश्रेष्ठ मनीषी रहे डॉ० उपाध्ये आज एक प्रामाणिकता के मिथक बन चुके हैं। वे अपने यश:काय रूप में साहित्य के द्वारा कालजयी बने हुये हैं। इस अंक में प्रकाशित भगवान् महावीर और उनका जीवन-दर्शन' आलेख आपके द्वारा लिखित है।
3. डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया-आप जैनविद्या के क्षेत्र में सुपरिचित हस्ताक्षर हैं, तथा नियमित रूप से लेखनकार्य करते रहते हैं। इस अंक में प्रकाशित ‘आर्या चन्दनाष्टक' नामक कविता के रचयिता आप हैं।
स्थायी पता—मंगल कलश, 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड़, अलीगढ़-202001 (उ०प्र०)
4. अनूपचन्द्र न्यायतीर्थ—आप हिन्दी के अच्छे कवि हैं। इस अंक में प्रकाशित 'महावीर जन्मकल्याणक-महोत्सव' शीर्षक कविता आपके द्वारा लिखित है।
स्थायी पता- 769. गोदिकों का रास्ता, किशनपोल बाजार, जयपुर-302003 (राज०) 5. डॉ० प्रेमचंद रांवका-आप हिन्दी-साहित्य के सुविज्ञ विद्वान् हैं। इस अंक में प्रकाशित आलेख वर्द्धमान महावीर : जीवन एवं दर्शन ' आपके द्वारा रचित है। स्थायी पता--1910, खेजड़ों का रास्ता, जयपुर-302003 (राज० )
6. कविवर नवलशाह-आप बुंदेलखंडी भाषा के प्रख्यात महाकवि रहे। सत्रहवीं शताब्दी में रचित आपका साहित्य भारतीय वाङ्मय की अमूल्य धरोहर है। आपके द्वारा रचित 'श्री वर्द्धमान पुराण' के एक अंश चन्दना-चरित' को इस अंक में सानुवाद दिया गया है।
7. डॉ राजेन्द्र कुमार बंसल आप ओरियंटल पेपल मिल्स, अमलाई में कार्मिक अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुये, जैनसमाज के अच्छे स्वाध्यायी विद्वान् हैं। इस अंक में प्रकाशित तिलोयपण्णत्ती में भगवान् महावीर और उनका सर्वोदयी दर्शन' शीर्षक आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है। ___पत्राचार-पता-बी०-369, ओ०पी०एम० कालोनी, अमलाई-484117 (उ०प्र०)
8. डॉ० उदयचंद जैन-सम्प्रति सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज०) में प्राकृत विभाग के अध्यक्ष हैं। प्राकृतभाषा एवं व्याकरण के विश्रुत विद्वान् एवं सिद्धहस्त प्राकृत कवि हैं।
प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 1 143 Jain Education International For Private & Personal Use Only
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