________________
हार्दिक प्रसन्नता होती है और मैं स्वयं को अत्यंत सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मैं 'प्राकृतविद्या' का स्थायी सदस्य हूँ।
स्वर्गीय साहू अशोक जैन की प्रतिमा (स्टेच्यू) एवं डॉ० हुकमचन्द जी भारिल्ल के राष्ट्रस्तरीय सम्मान से स्पष्ट है कि श्रावकों के प्रति विशेषत: विद्वान एवं सामाजिक कार्यकर्ता के प्रति आचार्य श्री के भावानुराग ने मूर्तिमंत स्वरूप ग्रहण कर लिया है। ___पण्डित सुखलाल जी संघवी का लेख 'वर्तमान सामाजिक परिवेश' में चतुर्विध संघ के लिये पठनीय, मननीय. चिंतनीय एवं शब्दश: अनुकरणीय है। डॉ० मंगलदेव शास्त्री की यह प्रस्तुति कि..... "जैनाचार्यों ने अनेकान्तवाद के द्वारा दार्शनिक आधार पर विभिन्न दर्शनों में विरोध भावना को हटाकर परस्पर समन्वय स्थापित करने का एक सत्प्रयत्न किया है", स्वर्ण-पट्टिका पर अंकित कर सदैव स्मरण रखते हुये अपने प्रत्येक व्यवहार में हमें कार्यान्वित करना चाहिये और आपने सांस्कृतिक मूल्यों को नये आयाम देना चाहिये।
अब यह आवश्यक हो गया है कि हमारे श्रमण एवं श्रमणी, श्रावक एवं श्राविकायें अपने व्यवहार में अहिंसा, विचार में अनेकांत और वाणी में स्याद्वाद के ठोस उदाहरण प्रस्तुत करें और पंथवाद की संकीर्ण विचारधाराओं से ऊपर उठकर जैनदर्शन को विश्व के समक्ष आधुनिक एवं वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करें। ___ प्राकृतभाषा के सिद्धहस्त लेखक-युगल डॉ० उदयचन्द्र जी एवं उनकी सहधर्मिणी माया जी की लेखनी निश्चित ही सराहनीय एवं प्रशंसनीय हैं। 'प्राकृतविद्या' के माध्यम से जैनदर्शन के सतत् जागरण में आपकी प्रभावी भूमिका अत्यधिक सराहनीय है और निश्चित ही आप हार्दिक बधाई के सुपात्र हैं। -सुरेश जैन, आई.ए. एस. भोपाल (म०प्र०) **
® सर्वप्रथम मैं आपके द्वारा प्रेषित 'प्राकृतविद्या' के 'अक्तूबर-दिसम्बर 2000' के अंक के लिये धन्यवाद देना चाहँगी। साथ ही नई दिल्ली में अन्तर्राष्ट्रीय दार्शनिक सम्मेलन के अवसर पर दर्शन के सेवानिवृत्त प्राध्यापकों के स्वागत, आतिथ्य तथा सम्मान-हेतु व्यक्तिगतरूप धन्यवाद देना आपका आभार व्यक्त करना चाहती हूँ। ___आपके संस्थान द्वारा प्रकाशित 'प्राकृतविद्या' निसंदेह ज्ञान का प्रकाश फैला रही है, जिसमें जैनदर्शन के मूर्धन्य विद्वानों, मनीषियों के विचारों की गंगा प्रवाहित हो रही है। प्रस्तुत अंक में 6 अप्रैल 2001 को घटित घटना के संदर्भ में आपकी चिन्ता स्वाभाविक है। यदि इसप्रकार की घटनाओं को रोका नहीं गया, तो जैनदर्शन के विचारों पर ही प्रश्नचिह्न लग जायेगा और जैनदर्शन के उदारवादी चिन्तन-अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के विशाल दृष्टिकोण पर से आस्था डगमगाने लगेगी।
आपकी पत्रिका के सुदृढ़ विचारों द्वारा ही जैन मतावलम्बियों को इस संकुचित दृष्टिकोण से बचाना होगा, ताकि सही मार्गदर्शन द्वारा जैनदर्शन के उदार विचारों का वर्चस्व बना रहे।
--डॉ० शकुन्तला सिन्हा, इन्दौर (म०प्र०) **
प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 10 129
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org