Book Title: Prakrit Vidya 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 119
________________ भगवान् महावीर के अनेकाना' का सामाजिक पक्ष __श्रीमती रंजना जैन वर्तमान-युग व्यावहारिक उपयोगिता का युग है। जो वस्तु या सिद्धांत व्यावहारिक उपयोगिता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है, वह लोकमान्य नहीं होता है; अत: आज यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि प्रत्येक धार्मिक सिद्धांत की व्यावहारिक उपयोगिता का गवेषणापूर्वक निर्णय करके सक्षम पद्धति से उसका प्रतिपादन किया जाये, ताकि वर्तमान परिस्थितियों में उसकी लोकमान्यता बनी रहे। वस्तुत: यह समीक्षा मात्र लोकमान्यता के लिये ही अपेक्षित नहीं है. अपित यह इसलिये भी जरूरी है कि उस सिद्धांत की एवं उस सिद्धांत के प्ररूपकों की सार्थकता प्रमाणित हो सके; अन्यथा वे सिद्धांत कोरी गल्प या वैचारिक खुरापात ही सिद्ध होंगे, तथा उनके प्रतिपादकों की प्रामाणिकता भी संदिग्ध हो जायेगी। इन्हीं दृष्टियों को समक्ष रखते हये मैंने इस आलेख में 'अनेकांतवाद' सिद्धांत के सामाजिक पक्ष पर विचार प्रस्तुत करने का निर्णय लिया है। प्रथमत: अनेकांत का सामान्य-स्वरूप यहाँ विचारणीय है। आगमग्रंथों में अनेकांत का लक्षण निम्नानुसार कहा गया है—“को अणेगंतो णाम?- जच्चंतरत्तं"' अर्थात् अनेकांत किसको कहते हैं? - इसका उत्तर है कि जात्यंतरभाव को अनेकांत कहते हैं। अभिप्राय यह है कि अनेक धर्मों या स्वादों के एकरसात्मक मिश्रण से जो जात्यन्तरपना या स्वाद उत्पन्न होता है. वही अनेकांत' शब्द का वाच्य है। इसी बात को और स्पष्ट करते हुये 'समयसार' के टीकाकार आचार्य अमृतचंद्र सूरि लिखते हैं कि"एकवस्तुनि वस्तुत्व-निष्पादक-परस्परविरुद्ध-शक्तिद्वय-प्रकाशनमनेकान्त:।" अर्थात् एक वस्तु में वस्तुत्व की उपजानेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकांत है। इसी बात को न्याय की शैली में परिभाषित करते हुए ‘आचार्य भट्ट अकलंकदेव' लिखते हैं.... “एकत्र प्रतिपक्षानेकधर्मस्वरूपनिरूपणो युक्त्यागमाभ्यामबिरुद्धः सम्यगनेकान्त:।"' प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 01 117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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