Book Title: Prakrit Vidya 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 86
________________ प्राणीमात्र उसे अपनाना चाहे, तो वह प्राणीमात्र के लिये न केवल उपयोगी होता था; अपितु व्यावहारिक भी होता था। ऐसे ही एक घटनाक्रम में जब युवराज वर्द्धमान के पास एक देव अपनी आकुलता का समाधान पूछने आये, तो यूवराज वर्द्धमान ने कहा कि “हे देव! मैं अतीत के बारे में अनावश्यक चिंता नहीं करता, और अनागत की कल्पनाओं में परेशान होकर व्यर्थ के जल्प नहीं करता हूँ; मात्र वर्तमान को शांत और संतुष्ट मन से जीता हूँ, इसीलिये मेरे चेहरे पर शांति और निश्चिता रहती है।” दीक्षा लेने के पूर्व ही उनकी ऐसी प्रशान्त मन:स्थिति हो गयी थी कि सजंयत और विजयंत नामक निग्रंथ मुनिराजों की जिज्ञासाओं का निरसन भी आपकी प्रशान्त-मुखमुद्रा देखने मात्र से ही हो गया था। प्राणीमात्र के कल्याण की भावना भगवान् महावीर के मन में इतनी प्रगाढ़ थी कि वे अपनी अपेक्षाकृत सीमित आयु जानकर गृहस्थी के चक्र में नहीं फँसे, और कुमार-अवस्था से ही सीधे निर्ग्रथ-श्रमण की प्रव्रज्या अंगीकार कर ली। क्योंकि उन्हें जन्मत: प्राप्त अवधिज्ञान से यह विदित था कि उनकी आयु मात्र बहत्तर वर्ष है। तथा लोककल्याण के लिये यह आयु बहुत कम है और भारत का क्षेत्रविस्तार बहुत व्यापक है। इतने बड़े कार्य के लिये संसार के प्रपंच में फंसना एक बहुत बड़ी भूल होती। इसका सुफल यह आया कि जहाँ आत्महित के लिये वे बारह वर्षों तक निग्रंथ मुनि की चर्या में तपस्यारत रहे; वहीं लोकहित के निमित्त 30 वर्षों तक देश भर में अपने दिव्य उपदेशों के द्वारा प्राणीमात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते रहे। इतना ही नहीं, उस समय के समाज में नारी के प्रति पुरुष की अपेक्षाकृत जो हीनदृष्टि थी, उसके निवारण के लिये मुनि-अवस्था में उन्होंने बन्दनी चन्दना के हाथों से नीरस आहार लेकर सम्पूर्ण समाज को नारी सम्मान की भावना का उदात्त-संदेश प्रदान किया। इसके साथ ही उन्होंने सामान्यजन के लिये सुलभ आहार लेकर सामान्यजनों की भावनाओं का प्रकारान्तर से सम्मान किया। लोकतन्त्र में सूचना की स्वतन्त्रता, तथ्यपरकता एवं निष्पक्षता को चतुर्थ एवं सर्वाधिक उपयोगी स्तम्भ माना जाता है। भगवान् महावीर की धर्मसभा (समवसरण) में न केवल मनुष्यमात्र, अपितु उपदेश सुनने व समझने की सामान्य पात्रता (संज्ञी पंचेन्द्रियत्व या समनस्कता) वाले प्राणीमात्र के लिये बिना किसी बाधा या भेदभाव के प्रवेश एवं 'उपदेशश्रवण' की स्वतन्त्रता थी। यह उनकी लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों का अनन्य समर्थन माना जा सकता है। तथा उपदेश में यह कहना कि "स्वरूपत: सभी आत्मायें समान हैं, कोई छोटी-बड़ी नहीं है। तथा प्रत्येक आत्मा पुरुषार्थ करके परमात्मपद प्राप्त कर सकता है।" यह सन्देश लोकतान्त्रिक व्यवस्था का उत्कृष्टतम आदर्श है। इसप्रकार भगवान् महावीर का चिन्तन एवं दर्शन लोकतन्त्र एवं गणतन्त्र के पूर्णत: अनुरूप है। भगवान् महावीर ने तीर्थंकर के रूप में जब दिव्यदेशना द्वारा लोककल्याण का पुनीत 40 84 प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) +महावीर-चन्दना-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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