Book Title: Prakrit Vidya 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 99
________________ का कथन तो हो; किन्तु अन्य अवशिष्ट धर्मों का निषेध न होकर उनकी विनम्र स्वीकृति भी हो' अथवा 'जो कथन किया जा रहा है, वह सर्वथा न होकर किसी अपेक्षा विशेष से ही है और उसे उसी मर्यादा में समझना चाहिये ।' आद्य शंकराचार्य ‘स्यात्’ पद की प्रयोगविधि को अपनी स्वीकृति प्रदान करते हुये लिखते हैं- “सत्यत्वं एवं स्याद् यथा अर्थवादानां विधिशेषाणाम् । ” - ('गीता' का शांकरभाष्य, 18/ 66 ) अर्थ :- विधिवाक्य के अन्त में कहे जाने वाले 'अर्थवाद' वाक्यों की सत्यता स्यात् एव' से मानी जाती है, यथा— स्यात् पार्थः धनुर्धर एव' । चूँकि शब्द की सामर्थ्य सीमित है तथा वस्तु का स्वरूप अनन्त धर्मात्क है, अत: वस्तु के पूर्णरूप को युगपत् कहने में शब्द सदैव असमर्थ रहते हैं । इसीलिए वस्तु को शब्दों के द्वारा 'अवक्तव्य' या 'अकथनीय' भी कहा गया है। इसी तथ्य के आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं: “सहावाच्यादवक्तव्य: । ” किन्तु जैन यह 'अवक्तव्यत्व' भी मात्र यौगपद्य कथन की अपेक्षा मानते हैं, सर्वथा नहीं । इसीलिए 'स्यात् अवक्तव्य' के रूप में वे वस्तुतत्त्व का कथन करते हैं, जो निर्दोष है । 'सर्वथा अवक्तव्य' मानते ही वह वचन सदोष हो जाता है । वस्तु को वेदान्तदर्शन ने ‘अनिर्वचनीय’ तथा बौद्धदार्शनिकों ने 'अव्याकृत' कहकर 'अवक्तव्य' माना है; किन्तु वहाँ 'स्यात्' पद का प्रयोग न होने से वे वचन पूर्णत: निर्दोष नहीं हैं | इसीप्रकार नानाधर्मो का कथन करते समय वस्तु का 'स्याद्वाद' शैली से विवेचन करने की उक्तियाँ जैनग्रंथों में द्रष्टव्य हैं 'कधमेक्कस्सेव जहण्णुक्कस्स - ववदेसो ? ण एस दोसो । कणिट्टो वि जेट्टो वि एसो चेव ममपुत्तो त्ति लोगे ववहारुवलंभा । - ( आचार्य वीरसेन, धवला पु० 4, पृ० 424 ) शंका तो फिर एक समय के जघन्य और उत्कृष्ट का व्यवदेश कैसे किया ? समाधान यह कोई दोष नहीं, क्योंकि कनिष्ठ भी और ज्येष्ठ भी 'यही हमारा पुत्र - इसप्रकार का व्यवहार पाया जाता है, इसलिए एक में भी जघन्य और उत्कृष्ट व्यपदेश हो सकता है । है' एक में भी भेद-व्यवहार संभव है, यथा— देवदत्त का ज्ञान' इस वाक्य में देवदत्त और ज्ञान अभिन्न है तथा देवदत्त का धन' इसमें देवदत्त और धन दोनों भिन्न पदार्थ हैं । इसीप्रकार का एक अन्य दृष्टान्त है ---- 'सिलापुत्तयस्स सरीरमिच्चादिस ऍक्कम्हि वि भेद ववहारो।' - ( आचार्य वीरसेन, धवला 4/1/5/2, पृ० 321 ) अर्थ :- शिलापुत्र का ( पाषाणमूर्ति का ) शरीर' इत्यादि लोकोक्तियों में भी एक या अभिन्न में भी भेद-व्यवहार होता है । Jain E प्राकृतविद्या, जनवरी-जून 2001 (संयुक्तांक) महावीर चन्दना विशेषांक 97ry.org

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