Book Title: Prakrit Vidya 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 100
________________ सापेक्ष कथन, यथा—दूध का बर्तन, पानी का कलश, घी का घड़ा, मिट्टी का घर आदि बहुप्रचलित हैं । 'पितृपुत्रादि - संबन्ध एकस्मिन्नपुरुषे यथा । न ह्येकस्य पितृत्वेन सर्वेषामपिता भवेत् । ।' - ( आचार्य जटासिंहनन्दि, वरांगचरित्र, 26/87 ) अर्थ:- एक ही मनुष्य किसी का पुत्र होता है तथा दूसरों का पिता होता है, इसप्रकार एक ही पुरुष में पिता-पुत्रादि संबंध निर्विरोधत: संभव हैं । काकः कृष्णः प्राधान्यपद (धवलवण्ण बलयाए ) 'बहुवण्णस्स जीवसरीरस्स कथमेक्का लेस्सा जुंजदे ? ण पाधाण्णपदमासेज्ज किसणो कागो त्ति पंच-वण्णस्स कागस्स कसणववदेसव्व एगवण्ण-ववहारविरोहाभावादो ।' - ( आचार्य वीरसेन, धवला 1,1,2 पृष्ठ 538 ) शंका बहुत वर्णवाले जीव के शरीर की एक लेश्या कैसे बन सकता है ? समाधान नहीं, क्योंकि प्राधान्य पद का आश्रय कर 'काककृष्ण' है, इसप्रकार पांचों वर्णवाले काक को जिसप्रकार व्यवहार से 'कृष्णवर्ण' कहते हैं; उसीप्रकार प्रत्येक शरीर में द्रव्य से छहों लेश्याओं के होने पर भी एक वर्णवाली लेश्या व्यवहार करने में कोई विरोध नहीं आता है । कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं च नो भवेत् । विद्याऽविद्या-द्वयं न स्याद्, बंधमोक्षद्वयं तथा । । - ( आप्तमीमांसा, 25 ) अर्थ:-अद्वैत एकान्त में पुण्य और पाप ये दो कर्म (शुभ अशुभ) सुख दुःख में उनके दो फल इहलोक और परलोक ये दो लोक तथा विद्या और अविद्या में दो ज्ञान एवं बंध और मोक्ष में दो तत्त्व नहीं बन सकते हैं । 'स्याद्वाद' शैली की इसी महनीयता एवं अनिवार्य उपयोगिता को स्वीकार करते हुये जैनाचार्यों ने स्पष्ट घोषित किया कि यदि वचन में सत्य की पहिचान करना है, तो 'स्यात्' का प्रयोग अवश्य देख लेना चाहिये । आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं “स्यात्कार: सत्यलाञ्छन । ” – ( आप्तमीमांसा, 112) वृत्ति स्यात्कारः स्याद्द्वादः सत्यलाञ्छन: सत्यभूतोऽभिप्रेतः । 'स्याद्वाद' को 'प्रतिष्ठातिलक' (1/27) में 'अमोघ - वाक्य' भी कहा गया है“स्याद्वादामोघवाक्यम् ।” इसीलिए विभिन्न ग्रंथों के मंगलचरणों में इष्टदेवता - स्मरण के साथ ही 'स्याद्वाद' का भी सादर स्मरण किया गया है: “श्रीमत्परमगम्भीर-स्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् । । " प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) महावीर - चन्दना-विशेषांकy.org 0098 Jain Education Internationa

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