Book Title: Prakrit Vidya 01 Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain Publisher: Kundkund Bharti TrustPage 92
________________ महावीर-देशना के अनुपम रत्न: अनेकान्त एवं स्यावाद __-डॉ० सुदीप जैन भगवान् महावीर के दर्शन के चार आधार-स्तम्भ हैं— आचार में अहिंसा, विचार में अनेकान्त, वाणी में स्यावाद एवं जीवन में अपरिग्रह। इनमें से क्रमश: चिन्तन एवं वचन के परिष्कारक दो अनमोल सिद्धान्त 'अनेकान्त' एवं 'स्याद्वाद' यहाँ संक्षेपत: विवेचित हैं..वैचारिक सहिष्णुता का सिद्धान्त : अनेकान्त मनुष्य के मस्तिष्क में विचारों की उत्पत्ति समनस्कता के कारण होती ही रहती है। किन्तु दिशाहीन एवं लोकहित से रहित विचारों को वस्तुत: बौद्धिक-व्यापार का चिह्न नहीं माना गया है। 'खाली दिमाग शैतान का घर' जैसी लोकोक्तियाँ ऐसे चिन्तनों को चरितार्थ करती हैं। परन्तु जो चिंतन सुव्यवस्थित, तार्किक एवं दिशाबोधक होते हुए भी पूर्वाग्रह अथवा अहंमन्यता के कारण पर विचार-असहिष्णु हो जाते हैं, उन्हें एकान्तिक चिन्तन' कहा जाता है। इसीकारण दार्शनिक जगत् में दो प्रकार के वैचारिक वर्गीकरण मिलते हैं1. एकान्तवादी दार्शनिक विचारधारा और 2. अनेकान्तवादी दार्शनिक विचारधारा।। भारतीय आर्य-संस्कृति की दो मूलधारायें हैं- 1. श्रमण-परम्परा और 2. वैदिक या ब्राह्मण-परम्परा। इनमें से श्रमण-परम्परा अनेकान्तवादी चिन्तन की पक्षधर रही है और वैदिक-परम्परा एकान्तवादी विचारों की पोषक रही है। क्योंकि वेदों को 'एकान्तवादी दर्शन' के रूप में माना गया है “एकान्तदर्शना वेदा:” – (महाभारत, मोक्षधर्म, शांतिपर्व, 2/306/46) इसी वैचारिक अन्तर के कारण इन दोनों धाराओं में व्यापक मतभेद भी रहे, और इसी कारण से “श्रमण-ब्राह्मणम् – येषां च विरोध: शाश्वतिक: इत्यवकाश:" - (पातंजल महाभाष्य, 1/4/911) जैसे वाक्य भी प्रचलन में आ गये; फिर भी मनभेद न रखकर ये दोनों धारायें भारतीय संस्कृति को गतिशील बनाये हुये हैं। वस्तुत: प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप अनेकान्तात्मक ही है। यह अनेकान्तात्मकता स्वयं 00 90 प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148