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के लिये बुलाते थे।
रथों के चिहन :- इतिहासकारों का ऐसा अनुमान है कि ऊँची पहाड़ी के ऊपर दर्ग बनाने के लिये जिन सवारियों से सामान ऊपर पहुँचाये जाते होंगे, यह चिह्न उन्हीं रथों, गाड़ियों के पहिओं के हैं। इन चिह्नों को देखने से इस बात का अनुमान भी लगाया जा सकता है कि ईसा की प्रथम से पाँचवीं शताब्दी तक किस आकार-प्रकार और वजन के वाहनों का पूर्वी भारत में उपयोग किया जाता था।
भीमकाय दीवारें :-- राजगृह की पुरानी दीवारों की लम्बाई का अनुमान किया गया है कि वे पच्चीस से तीस मील रही होगी। इसीलिये इन्हें भीमकाय दीवारें या (साइक्लोपियन वाल्स) कहा गया है। इन दीवारों के पत्थर आपस में इसप्रकार जुड़े हैं कि आज के बड़े-बड़े भवन-निर्माण-विशेषज्ञ उन्हें देखकर दातों तले उंगली दबाते हैं।
विश्वशांति-स्तूप :- शांति, प्रेम और अहिंसा का संदेश देनेवाला मंदिर या स्तूप 'रत्नगिरी पर्वत' से ऊपर 1,147 फीट की ऊंचाई पर बना हुआ है। इस स्थान पर पहुँचने के लिये रज्जु-मार्ग बनाया गया है। दर्शनार्थी रस्सी से झुलती हुई कुर्सीयान (रोप वे) पर बैठकर जाते हैं और यह रस्सी बिजली के यंत्रों से खिचती हुई ऊपर जाती है और फिर पलटकर नीचे आ जाती है। इससे सबसे बड़ा लाभ यह है कि इतनी ऊँची चढ़ाई देखते-देखते पार कर ली जाती है। इस रज्जुपथ में 120 कुर्सियाँ हैं । राजगृह में पर्यटकों के ठहरने के लिये सरकार की ओर से डाकबंगले और विश्रामगृह बने हुये हैं।
कर्तृत्व का कष्ट “करिष्यामीदं कृतमिदमिदं कृत्यमधुना। करोमीति व्यग्रं नयसि सकलं कालमफलम् ।। सदा राग-द्वेष-प्रचयनपरं स्वार्थविमुखे। न जैनेऽविकृत्त्वे वचसि रमते निवृत्तिकरे।।"
–(प्रवचनसार टीका, 57) भावार्थ :- “मैं ऐसा करूँगा, मैंने ऐसा किया है, अब ऐसा करता हूँ" —इसतरह आकुलता में ही पड़ा हुआ तू अपना सर्वजीवनकाल निष्फल खोता फिरता है तथा सदा अपने आत्मा के कल्याण से विमुख होकर राग-द्वेष के आग के भीतर पड़ा-खड़ा रहता है और मुक्ति के कारण विकाररहित वीतराग जिनेन्द्र के वचनों में रमण नहीं करता
ऐसा कर्त्ताभाव वास्तव में मनुष्य को आत्मसाधना के मार्ग पर अग्रसर नहीं होने देता है। अत: कर्त्ताभाव के अहंकार से अपने परिणामों को बचाना चाहिये। **
00 74 प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) +महावीर-चन्दना-विशेषांक
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