Book Title: Prakrit Vidya 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 58
________________ 'वैशाली' के इसी गौरव के प्रति श्रद्धावनत होते हुये राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने लिखा है “वैशाली 'जन' का प्रतिपालक, 'गण' का आदि-विधाता। जिसे ढूँढ़ता देश आज, उस 'प्रजातन्त्र की माता ।। रुको एक क्षण पथिक ! यहाँ मिट्टी को शीश चढ़ाओ। राज-सिद्धियों की समाधि पर फूल चढ़ाते जाओ।।" इस समृद्ध वैशाली नगरी में उस समय आठ प्रकार की परिषदें थीं - श्रमण परिषद्, क्षत्रिय परिषद, ब्राह्मण परिषद्, गृहपति परिषद्, चातुर्महाराजिक परिषद्, त्रायस्त्रिंश परिषद्, मार परिषद् और ब्रह्म परिषद् ।। 'वैशाली' गणतन्त्र के संयुक्त संघ में आठ गण सम्मिलित थे --- भोगवंशी, इक्ष्वाकुवंशी, ज्ञातृवंशी, कौरववंशी, लिच्छविवंशी, उग्रवंशी, विदेह कुल और वज्जिकुल । -ये सभी 'लिच्छवि' थे तथा इनमें 'ज्ञातवंशी' सर्वप्रमुख थे। ‘लच्छवि' होने के कारण ही ये आठों कुल परस्पर संगठित रहे । वैदिक साहित्य एवं बौद्ध-साहित्य में 'लिच्छवियों' को बड़े सम्मानपूर्वक स्मृत किया गया है। 'मनुस्मृति' में लिखा है "झल्लो मल्लश्च राजन्याद्, व्रात्याल्लिच्छविरेव च । नरश्च करणश्चापि, खसो द्रविड़ एव च।। ---(10/12) अर्थ :--- 'झल्ल' एवं 'मल्ल' सामान्य क्षत्रियों से उत्पन्न हुये; तथा लिच्छवि, नर, करण, खस तथा द्रविड़ ये 'व्रात्यों' (उच्चकुलीन क्षत्रियों) से उत्पन्न हुये हैं। 'तैत्तिरीय ब्राह्मण' में 'व्रात्य' की परिभाषा करते हुये लिखा है.-- “यस्य पिता-पितामहादि सूरां न पिबेत, स व्रात्यः।" अर्थात् जिसके पिता एवं पितामह आदि भी शराब नहीं पीते, वह 'व्रात्य' है। ऐसे उच्चकुलीन व्रात्यवंशी लिच्छवि क्षत्रियों के गणनायक राजा चेटक की राजधानी वैशाली नगरी के निकटस्थ क्षत्रिय 'कुण्डग्राम' नामक नगर था, जो कि वैशाली गणतंत्र का अंग था। वैशाली से उत्खनन से प्राप्त एक मुहर में 'वेसाली नाम कुंडे' अंकित मिला है। इसी कुण्डग्राम के अधिपति ज्ञातृवंश-शिरोमणि राजा सिद्धार्थ की सहधर्मिणी रानी प्रियकारिणी त्रिशला ने एक रात्रि के अंतिम प्रहर में सोलह स्वप्न देखे। उन्हें देखकर बे अत्यन्त प्रमुदित हुईं तथा उनका फल जानने की जिज्ञासा अत्यन्त प्रबल हुई। नृप सिद्धार्थ से निवेदन करने पर निमित्तज्ञानी राजा बोले कि “प्रिये ! तुम धन्य हो। वैशाली की धरती एवं तुम्हारे मातृत्व को परमपावन करने तीर्थंकर बालक का तुम्हारी कुक्षि में अवतरण हो चुका है।" यह शुभ घड़ी थी आषाढ़ शुक्ल षष्ठी, शुक्रवार, 17 जून 599 ईसापूर्व। नौ मास, सात दिन एवं बारह घंटे का गर्भवासकाल पूर्ण करने पर चैत्रशुक्ल 00 56 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) +महावीर-चन्दना-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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