Book Title: Prakrit Vidya 01 Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain Publisher: Kundkund Bharti TrustPage 59
________________ त्रयोदशी, सोमवार, 27 मार्च 598 ईसापूर्व को वैशाली धन्य हो गयी, जब कुण्डग्राम के 'नन्द्यावर्त' राजप्रासाद में बाल तीर्थकर का जन्म हुआ। अट्ठारह गणराज्यों के संघ 'वैशाली गणतन्त्र' में सर्वत्र हर्षोल्लास का वातावरण था, तथा उसके अध्यक्ष राजा चेटक के भी हर्ष का पारावार न था। भला हो भी क्यों न; वे 'नाना' जो बने थे। इसप्रकार सम्पूर्ण वैशाली के दुलारे इस बालक की 'वैशालिक' संज्ञा अन्वर्थक हुई— "विशाला जननी यस्य, विशालं कुलमेव च। विशालं वचनं चास्य, तेन वैशालिको जिन: ।।" उनके जन्म लेते ही वैशाली की सर्वविध ऐश्वर्यवृद्धि होने लगी थी, अत: जन्म के दसवें दिन इनके पिताश्री राजा सिद्धार्थ ने अत्यन्त चाव से इनका नामकरण किया'वर्द्धमान' । इनका कुल नाथ, जाति-लिच्छवि, वंश-इक्ष्वाकु एवं गोत्र-कश्यप था। दूज के चन्द्रमा की भाँति वृद्धिंगत बालक वर्द्धमान अपने बालसखा मित्रों चलधर, काकधर और पक्षधर के साथ नानाविध खेल खेलते हुये क्रमश: आठ वर्ष के हुये। इसी सुकुमार अवस्था में ही उन्होंने पाँच अणुव्रतों को अंगीकार किया। इनके अन्य नामान्तर भी प्रसिद्ध हुये; यथा—'वीर', विषधर-रूपधारी देव को क्रीड़ा-मात्र में निर्मद कर देने से 'अतिवीर', संजयंत और विजयंत नामक दो चारण ऋद्धिधारी मुनियों की तात्त्विक जिज्ञासा का इनकी प्रशान्त-मुद्रा के अवलोकन-मात्र से समाधान होने से ‘सन्मति' तथा दुर्निवार कामविकार को कुमारावस्था में ही जीतने से 'महावीर' कहलाये। इनके जन्म के समय 'नन्द्यावर्त राजप्रासाद' पर 'सिंह' चिह्नांकित ध्वजा फहरा रही थी, अत: इनका चिह्न 'सिंह' प्रसिद्ध हुआ। युवा राजकुमार वर्द्धमान का चिंतन एवं संभाषण उनके पद की प्रतिष्ठा के अनुरूप था। वैशाली अभिनंदन-ग्रंथ' (पृ०113) पर मुद्रित यह संवाद मननीय हैवर्द्धमान – “सेनापति सिंह ! आजकल तुम बहुत व्यस्त रहते हो।" सिंह - “हे निगण्ठनातपुत्त ! मैं कितना भी व्यस्त रहूँ, आपके उपदेश मुझे चिंता से मुक्त करते रहेंगे।" । वर्द्धमान - “सेनापति सिंह ! सुनो, मैं नहीं, तुम्हारी आंतरिक शक्ति ही तुम्हें मुक्त करेगी। जीव स्वावलम्बी और स्वतंत्र है। वह अनन्त चतुष्टय से परिपूर्ण है और अनंत सामर्थ्यवान् है। परंतु वह अपनी इस अनंत सामर्थ्य को स्वयं ही नहीं पहिचानता है। जिस दिन पहिचान जाता है, उसी दिन से क्लेशमय बंधनों से विमुक्त हो जाता है। इसे पहिचानो।" माता-पिता ने राजकुमार वर्द्धमान के युवा होने पर उनके विवाह के उपक्रम प्रारंभ किये, किन्तु वर्द्धमान का मन वैराग्यपथ पर अनुरक्त था; अत: उन्होंने एक दिन अपने पूर्व-भवों का स्मरण करते हुये वैराग्य अंगीकार कर लिया तथा 569 ईसापूर्व की मंगसिर प्राकृतविद्या-जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक 00 57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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