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कृष्णदशमी, सोमवार, 29 दिसम्बर के दिन 'हस्त' एवं 'उत्तरा' नक्षत्रों के मध्यवर्ती समय में उन्होंने संसार त्यागकर निर्ग्रन्थ मुनि दीक्षा अंगीकार की । और फिर वे बारह वर्ष पाँच माह, पन्द्रह दिनों तक घोर तपश्चर्या करते रहे । तदुपरान्त उन्हें 26 अप्रैल, 557 ईसापूर्व को बैसाख शुक्ल दसमी, रविवार के दिन उत्तरहस्ता नक्षत्र में कैवल्य की प्राप्ति हुई, और वे 'अरिहन्त' (जीवन्मुक्त सकल परमात्मा ) बन गये ।
इसके बाद इन्द्रभूति गौतम नामक प्रकाण्ड ब्राह्मण विद्वान् को प्रभु महावीर के प्रधान शिष्य (गणधर ) बनने का सौभाग्य मिला । फिर महावीर स्वामी ने 29 वर्ष, 5 माह, 20 दिनों तक काशी, कश्मीर, कुरु, मगध, कोसल, भद्र, चेदि, दशार्ण, बंग, अंग, आंध्र, उशीनर, मलय, विदर्भ एवं गौड़ आदि देशों में संघ - सहित धर्मोपदेश किया और अनेकों जीवों को कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया ।
अन्त में आत्मकल्याणपूर्वक विश्व कल्याण का मांगलिक कार्य अत्यन्त गरिमापूर्वक सम्पादित करते हुये वे 527 ईसापूर्व को कार्तिक मास की अमावस्या को 15 अक्तूबर मंगलवार के दिन विदेहमुक्त होकर परिनिर्वाण को प्राप्त हुये ।
उनका निर्वाणोत्सव वैशाली के प्रजातंत्रों ने दीपोत्सव करके मनाया था, अतः सभी से 'दीपावली' का पर्व प्रचलित हुआ ।
'भगवान् महावीर महात्मा बुद्ध के समक्ष थे' ——यह बात स्वयं महात्मा बुद्ध ने 'दीघनिकाय' (प्रथम भाग, पृ० 48 ) नामक ग्रंथ में स्वीकार की है । वे लिखते हैं कि "निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र तीर्थंकर महावीर संघ के नेता हैं, गणी हैं, गणाचार्य हैं, सर्वज्ञ हैं, तीर्थंकर हैं, साधुजनों के द्वारा पूजनीय हैं, अनुभवशील हैं, बहुत दिनों से साधु चर्या करते हैं और अधिक वय: (उम्र) वाले हैं। "
इस कथन से स्पष्ट है कि भगवान् महावीर महात्मा बुद्ध से गुणों एवं आयु दोनों में श्रेष्ठ थे ।
सन्देश
भगवान् महावीर ने जैनधर्म के चिरन्तन - सिद्धान्तों को सरलतापूर्वक लोकभाषा में समझाया। उन्होंने पारस्परिक सौहार्द एवं सहअस्तित्व की भावना से 'अहिंसा' सिद्धान्त को सर्वाधिक गरिमा के साथ प्रस्तुत किया, तो वैचारिक सहिष्णुता को सिखाने के लिए ‘अनेकान्त' जैसे सिद्धान्त का प्रवर्तन किया । वाणी की सहिष्णुता का पाठ उन्होंने 'स्याद्वाद' सिद्धान्त के द्वारा समझाया, तो 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना से अनुप्राणित होकर उन्होंने 'अपरिग्रहवाद' का सिद्धान्त दिया ।
लोकतंत्र का मूलमंत्र महावीर के संदेश का प्रधानतत्त्व था कि “प्रत्येक आत्मा समान है, कोई छोटी या बड़ी नहीं है । जो भी पुरुषार्थ करके अपने आत्मिक गुणों का पूर्ण विकास कर ले, 'परमात्मा' बन सकता है। उनकी 'अहिंसा' की पराकाष्ठा को तो सारे
58 प्राकृतविद्या + जनवरी - जून 2001 (संयुक्तांक) महावीर चन्दना - विशेषांक
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