Book Title: Prakrit Vidya 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 57
________________ से 3000 में जैन-संस्कृति का उल्लेखनीय प्रभाव सिद्ध हो जाता है । अन्य पुरातात्त्विक प्रमाणों से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि ईसापूर्व काल में भी जैन तीर्थकरों की मूर्तियों का निर्माण एवं उनकी पूजा होती थी । प्रख्यात विद्वान् श्री रायकृष्णदास ने लिखा है कि “ ईसापूर्व पाँचवीं शताब्दी में जैन मूर्तियाँ बनतीं थीं ।" इसीप्रकार डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार “कलिंगाधिपति खारवेल के हाथीगुफा - शिलालेख से भी ज्ञात होता है कि 'कुमारी पर्वत' पर जिन - प्रतिमा का पूजन होता था ।” इसी जैन - संस्कृति की सुदीर्घ परम्परा के अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर थे, जिनके बारे में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान् प्रोफेसर टी०एन० रामचन्द्रन् लिखते हैं कि “महावीर ने एक ऐसी साधु-संस्था का निर्माण किया, जिसकी भित्ति पूर्ण अहिंसा पर आधारित थी । उनका 'अहिंसा परमो धर्म:' का सिद्धान्त सारे संसार में अग्नि की तरह व्याप्त हो गया। बाद में इसने आधुनिक भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को अपनी ओर आकर्षित किया। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि अहिंसा के सिद्धान्त पर ही महात्मा गाँधी ने नवीन भारत का निर्माण किया । " -- 'वैशाली' और महावीर . 'वैशाली' भारत का आद्य - गणतन्त्र था । इसमें 'विदेह' का 'वज्जिसंघ' एवं 'वैशाली' का लिच्छिवि संघ' सम्मिलित थे । ये दोनों संघ एक पारस्परिक राजनीतिक-सन्धि के अन्तर्गत एकीकृत हुये थे । इस सन्धि के अनुसार 'विदेह' के गणप्रमुख 'चेटक' को इस एकीकृत संघ का प्रमुख चुना गया (चेटकेनाप्यष्टादशगणराजानो मिलिताः) और इसकी राजधानी बनी 'वैशाली - नगरी । ' उस समय में यह वैशाली नगरी शोभा एवं समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर थी । बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार “उस समय वैशाली के भवनों के तीन वर्ग थे। इनमें सात हजार (7,000) भवन स्वर्णकलशों से सुसज्जित थे, चौदह हजार (14,000) मकान रजतकलशों से सुशोभित थे तथा इक्कीस हजार (21,000) भवनों पर ताम्रकलश लगे हुये थे । इनमें उच्च, मध्यम और सामान्यवर्ग के लोग अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार रहते थे। उस समय 'वैशाली' की कुल जनसंख्या एक लाख अड़सठ हजार थी; तथा सभी नागरिक हर तरह से सुखी व सम्पन्न थे । इस वैशाली नगरी की शोभा एवं समृद्धि को देखकर स्वयं महात्मा बुद्ध आश्चर्यचकित हो देखते रह गये थे । उन्होंने 'महापरिनिव्वाण - सुत्त' में लिखा है कि "हे भिक्षुओ ! लिच्छिवियों की इस 'वैशाली' नगरी को देखो, यह साक्षात् देवताओं की परिषद् के समान दिखाई दे रही है । " वैशाली चूँकि गणतन्त्र था, अत: वहाँ के लिच्छविगण अपने आपको राजा के समान ही मानते थे— “एकैक एवं मन्यते अहं राजा अहं राजेति । ” – ( ललितविस्तर 3/23 ) लगभग ऐसी ही स्थिति 'महाभारत युग' में भी रही होगी, अतएव महाभारतकार को लिखना – “गृहे गृहे हि राजान: स्वस्य स्वस्य प्रियंकराः।” -- ( महाभारत, सभापर्व, अ014/2 ) पड़ा — " प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) महावीर - चन्दना - विशेषांक 055 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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