Book Title: Prakrit Vidya 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 38
________________ सुरक्षित रखा है। जैसलमेर, जयपुर, पट्टन और मूडबिद्री आदि स्थानों में जो इनके ही संग्रह (भंडार) हैं, निश्चय ही वे राष्ट्रीय सम्पत्ति के एक भाग हैं। उन्होंने ये संग्रह (भंडार) ऐसी विद्वत्ता एवं उदार दृष्टि से तैयार किये कि वहाँ धार्मिक द्वेष का कोई नामोनिशान (चिह्न) तक न था। जैसलमेर और पट्टन के भंडारों में तो कुछ ऐसी मूल बौद्ध-कृतियाँ उपलब्ध हैं, जो कि हम केवल तिब्बती अनुवाद से ही जान सके, इस सबका श्रेय इन भंडारों के संग्राहकों एवं निर्माताओं को ही है। __ जैन-साहित्य का निष्पक्ष एवं समालोचनात्मक अध्ययन जैनधर्म और जीवन के सही दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने में समर्थ है। जीवन की सही दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने में समर्थ हैं। जीवन की जैनदृष्टि से मेरा तात्पर्य उस जीवन-दर्शन से है, जिसमें जैन अध्यात्म एवं नीति (आचार) विषयक मूल-सिद्धान्तों को न्यायपूर्ण विवेचन हो और जैन उद्देश्यों की पूर्ति होती हो, आज के जैनधर्मावलंबियों की जीवन-दृष्टि से नहीं। ____ आध्यात्मिक दृष्टि से सभी आत्मायें अपने-अपने विकास के अनुसार (गुणस्थान रूप से) धर्म के मार्ग में अपना यथायोग्य स्थान पाती हैं। प्रत्येक की स्थिति अपने-अपने कर्मानुसार सुनिश्चित है और उनकी उन्नति अपनी-अपनी संभाव्य शक्ति पर निर्भर है। जैनियों के ईश्वर न तो विश्व के कर्ता हैं और न ही सुख-दु:खों के दाता। वे तो एक आध्यात्मिक मूर्ति हैं, जिन्होंने कृतकृत्यता प्राप्त कर ली है। उनकी पूजा-स्तुति केवल इसलिये की जाती है कि हम भी तदनुकूल बनकर उसी कृतकृत्यता एवं सर्वज्ञत्व की स्थिति को प्राप्त कर सकें। प्रत्येक आत्मा को अपने कर्मानुसार सुख-दुःख का फल भोगना ही चाहिए, सच तो यह है कि हर आत्मा अपना भावी भाग्यविधाता स्वयं ही हैं। किसी आत्मा के पुण्य-पाप का दूसरे के साथ विनिमय होना बिल्कुल ही निराधार है, अत: ऐसे विचारों से कोई किसी का आश्रित या आधीन नहीं बनता है और विश्वास एवं आशापूर्वक अपन कर्त्तव्य पालन करता हुआ निरंतर प्रगतिशील बना रहता है। यदि कोई पुरुष बाह्य अथवा आंतरिक दबाव के कारण दुष्ट या हत्यारा बन जाता है, तो उसे निराश नहीं होना चाहिए, क्योंकि अन्तरंग से तो वह पवित्र ही है, अत: जब कभी काललब्धि आयेगी वह स्वानुभूति पर आत्मकल्याण कर सकेगा। जैनधर्म में कुछ आचार-संबंधी नियम सुनिश्चित हैं, जो मनुष्य को सामाजिक प्राणी के रूप में क्रमश: विकास करने में सहायक होते हैं। जब तक वह समाज में रहता है, तब तक आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ समाजसेवा की ओर विशेष आकृष्ट रहता है; पर यदि वह सांसारिक झंझटों को छोड़ मुनिपद अंगीकार करता है, तो फिर उसका सामाजिक उत्तरदायित्व घट जाता है। जैनधर्म में श्रावकों के कर्त्तव्य मुनियों जैसे ही होते हैं; पर मात्रा (Degree) में कुछ कम होते हैं, अत: श्रावक अपनी क्रियाओं का आचरण करता हुआ क्रमश: मुनिपद प्राप्त कर सकता है। Jain EID 36tern प्राकतविद्या जनवरी-जन'2001 (संगक्तांक) - महावीर-चन्दना-विशेषांक,ry.org

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