Book Title: Prakrit Vidya 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 39
________________ मूल I अहिंसा एक ऐसा सिद्धान्त है, जो जीवन में जैनदृष्टि का प्रवेश कराती है, जिसका अर्थ है 'प्राणीमात्र पर अत्यधिक करुणाभाव रखना।' जैनधर्म की दृष्टि से सभी प्राणी समान हैं और हर धार्मिक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि उसके द्वारा (निमित्त से) किसी को कष्ट न पहुँचे। प्रत्येक प्राणी का अपना स्वतंत्र अस्तित्व एवं गौरव है और यदि कोई अपना अस्तित्व कायम रखना चाहता है, तो उसे दूसरों के अस्तित्व का भी आदर करना चाहिए। एक दयालु पुरुष अपने चारों ओर दया का वातावरण बनाये रखता है जैनधर्म में यह सुनिश्चित है कि बिना किसी जाति, धर्म, रंग, वर्ग तथा स्थान के भेदभाव से जीवन पूर्णरूपेण पर्वित्र एवं सम्माननीय है । जैनधर्म की दृष्टि से हिरोशिमा और नागासाकी का निवासी उतना ही पवित्र एवं श्रेष्ठ है, जितना कि लंदन और न्यूयार्क का । उनके काले-गोरे रंग, भोजन अथवा वेष-भूषा यह सब बाह्य विशेषणमात्र ही हैं । इसप्रकार अहिंसा की प्रक्रिया वैयक्तिक तथा सामूहिक दोनों ही रूप से एक महान् सद्गुण है और क्रोधादि कषायों से रहित एवं रागद्वेष - विहीन । यह करुणा का भाव निस्सन्देह बड़ा प्रभावक एवं शक्तिशाली होता है । जैनाचार का दूसरा महान् गुण है 'भाईचारा' या 'मैत्रीभाव' (Neighbourliness)। प्रत्येक पुरुष को सत्य बोलना चाहिए और दूसरे के गुणों का आदर करना चाहिए, जिससे समाज में उसका मान और विश्वास बढ़े तथा साथ ही वह दूसरों के लिए सुरक्षा का वातावरण निर्माण में सहायक बन सकें । यह बिल्कुल व्यर्थ एवं हेय है कि अपने पड़ोसी के साथ तो दुष्टता का व्यवहार करे और समुद्र पार के विदेशियों के प्रति विश्वबन्ध Jत्व एवं उदारता दिखाने का ढोंग रचें । व्यक्तिगत कारुण्य पारस्परिक विश्वास एवं आपसी सुरक्षा के भाव अपने पड़ोसी से ही आरम्भ होना चाहिए । और फिर वे क्रमशः उत्तरोत्तर स्तर पर सक्रियरूप से समाज में फैलाना चाहिए, किन्तु कोरे रूक्ष - सिद्धान्तों के रूप में नहीं। ये सद्गुण सुयोग्य नागरिकों के अनुकूल सामाजिक एवं राजनीतिक वर्ग तैयार करते हैं, जो मानवीय दृष्टि से अच्छे आदमियों के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए उत्साहित करते हैं । तीसरा विशिष्ट गुण है ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, जो धार्मिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ विभिन्न दशाओं वे विभिन्न मात्राओं में सीखा जाता है। एक आदर्श धार्मिक पुरुष जब मन-वचन-कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है, तो उसकी चिरसंचित निधि का अंतिम अवशेष उसका शरीरमात्र ही रह जाता है, जिसे स्थिर ( जीवित ) रखने के लिए उसकी आवश्यकतायें भी अत्यधिक सीमित रह जाती हैं और जब इनका भी धर्मसाधन में कोई योग नहीं रह जाता, तो इन्हें भी वह सहर्ष परित्याग कर देता है । सुख-शांति की खोज मानवमात्र का एक चरम लक्ष्य है। यदि वैयक्तिक प्रवृत्तियों एवं इच्छाओं को विधिवत् रूप से नियन्त्रित रखने का प्रयत्न किया जाये, तो फिर मनुष्य को मानसिक प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2001 (संयुक्तांक) महावीर - चन्दना - विशेषांक 00 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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